________________
१५४ जैनसाहित्यका इतिहास उजुग वचिगद जाणदि उजुग कायगद जाणदि ॥६२।। गणेण माणस पडिविंदइत्ता परेसिं सण्णा सदि मदि चिंता, जीविदमरण लाहालाह सुहदुक्स णयरविणास देसविणास जणवयविणास सेदविणारा कवटविणास मडविणाम पट्टणविणास दोणामुहविणाग अइबुट्ठि अणावुठ्ठि सुबुट्ठि दुवुट्ठि सुभिक्य दुभिवस खेमाखेमभयरोगकालस[प] जुत्ते अत्थे वि जाणदि ॥६६॥ किं नि भूओअप्पणो परेसिं च वत्तमाणाण जीवाण जाणदि णो अवत्तमाणाण जीवाण जाणदि ॥६४॥ कालदो जहण्णेण दो-तिण्णि-भवग्गहणाणि ।।१५।। उपकस्मेण गत्तट्ठभवग्गहणाणि ॥६६॥ जीवाण गदिमादि पदुप्पादेदि ॥१७॥ तदो ताव जहणेण गाउवपुधत्त उक्कस्सेण जोयणपुचत्तस्ग अन्तरदो णो वहिदा ॥१८॥ ( छक्सडागम, पु० १३, पृ० ३२८-३३८) ।
उक्त सूत्रोको महावन्धमें इस प्रकार निवद्ध किया गया है
'ज त मणपज्जवणाणावरणीय काम्म वधतो त एयविध । तस्म दुविहपरूवणा उज्जुमदिणाण चैव विपुलमदिणाण चेव । ज त उजुमदिणाण त तिविध उज्जुग मणोगदं जाणदि । उज्जुग वचिगद जाणदि । उज्जुग कायगद जाणदि । मणेण माणस पडिविंदइत्ता परेसिं सग्णा सदि मदि चितादि विजाणदि, जीविदमरण लाभालाभ सुहदुक्स णगरविणासं देह(देस)विणास जणपदविणासं अदिबुठ्ठि अणावुट्ठि सुवुछि दुबुठ्ठि सुभिक्ख दुन्भिक्स समाखेमभयरोगं उन्भय इन्भय सभम वत्तमाणाण जीवाण णो अवत्तमाणाण जीवाण जाणदि । जहण्णेण गाउदपुधत्त । उक्कस्सेण जोयणपृधत्तस्स अन्भतरादो, णो वहिद्धा । जहण्णेण दोतिण्णि भवग्गहणाणि, उक्कस्सेण सत्तट्ठभवग्गहणाणि गदिरागदि पदुप्पादेदि।" (म०व०, भा० १, पृ० २४-२५ ।)
महावधमें ज्ञानावरणीयकी प्रकृतियोके निमित्तसे ज्ञानके भेदका विवेचन तो प्रकृतिअनुयोगद्वारके अनुसार किया है। किन्तु वाकीके सात कर्मोकी प्रकृतियोकी केवल सख्या वतला दी है । यथा दर्शनावरणीयकर्मकी नौ प्रकृतियाँ है, वेदनीयको दो प्रकृतियाँ है, आदि । चूँकि वर्गणाखण्डके प्रकृतिअनुयोगद्वारमे कर्मोकी प्रकृतियोका वर्णन किया जा चुका था, इसीसे महावन्धमें उन सबका वर्णन नही किया गया। ____ आगे वन्धस्वामित्वविचय-बन्धके स्वामीपनेके विचारका प्रतिपादन किया गया है। यह कथन बन्धस्वामित्वविचय नामक तीसरे खण्डका सक्षिप्त रूप है।
महाबन्धमें भी तीर्थंकरप्रकृतिके बन्धके सोलह कारण बतलाये है किन्तु सोलह कारणोके क्रममें थोडा अन्तर है। यहाँ आठवें नम्बरपर 'साधुसमाधिसधारणता के स्थानमे 'साधुप्रासुकपरित्यागता' पाठ है और नौवें नम्बरपर 'वैयावृत्ययोगयुक्तता' के स्थानमें 'समाधिसधारणता' पाठ है । तथा न० १०में 'साधु