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छक्खडागम • १४७
अनुभाग वाले किन-किन कर्मोका अपवर्तन करके किस स्थानको प्राप्त करता है और अवशिष्ट कर्म किस-किस स्थिति और अनुभागको प्राप्त होते है ?
उधर जीवस्थानकी चूलिकाके आरम्भमे ये पृच्छाएँ की गई है
'कदिकाओ पयडीओ वदि, केवडि कालठ्ठिविएहि कम्मेहि सम्मत्त लब्भदि वा ण लब्भदि वा, केवचिरेण कालेण वा कदि भाए का करेंदि मिच्छत्त, उवसामणा वा खवणा वा केस व खेत्तेसु कस्स व मूले केवडियं वा दसणमोहणीय कम्म खर्वतस्स चारित्त वा सपुण्ण पडिवज्जतस्स ॥१॥
अर्थ-सम्यक्त्वको उत्पन्न करने वाला मिथ्यादृष्टि जीव कितनी और किन प्रकृतियोको बांधता है ? कितनी कालस्थिति वाले कर्मों के द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त करता है अथवा नही प्राप्त करता है ? कितने कालके द्वारा मिथ्यात्वकर्मको कितने भागरूप करता है और किन-किन क्षेत्रोमें तथा किसके पासमें कितने दर्शनमोहनीयकर्मको क्षपण करने वाले जीवके और सम्पूर्ण चारित्रको प्राप्त होने वाले जीवके मोहनीयकर्मकी उपशामना और क्षपणा होती है ? ॥१॥ ___ दोनो ग्रन्थोका प्रकरण एक ही है और पृच्छापूर्वक कथन करनेकी जैन आगमिक शैली है। किन्तु कसायपाहुडपे उक्त चार गाथाओके द्वारा केवल पच्छा ही की गई है । इन पृच्छाओका उत्तर तो चूर्णिसूत्रकारने दिया है। किन्तु जीवस्थानचूलिकामें प्रारम्भमें सामूहिक रूपसे सव पृच्छाओको देकर फिर एक-एक प्रकरणमें एक-एक पृच्छाका उत्तर दिया है । दोनो ग्रन्थोकी उक्त पृच्छाओमें केवल दो पृच्छा ऐसी है जो आपसमें मेल खाती है । किन्तु इतने मात्रसे निष्कर्ष निकालना तो दूर, कोई सभावना भी नही की जा सकती।
इसी तरह कसायपाहुडके इसी प्रकरणमें आगे १५ गाथाएँ आती है । उनमेंसे दो गाथाएँ उल्लेखनीय है । उनमें एक गाथा इस प्रकार है
दसणमोहस्सुवसामगों दु चदुस वि गदीस बोद्धन्वो ।
पचिदिओ य सण्णी णियमा सो होई पज्जत्तो ॥१५॥ अर्थ-दर्शनमोहनीयकर्मका उपशम करने वाला जीव चारो ही गतियोमें जानना चाहिये । वह जीव नियमसे पञ्चेन्द्रिय, सज्ञी और पर्याप्तक होता है ।
जीवस्थानकी सम्यक्त्वोपत्तिचूलिकामें इसीको विस्तारसे कहा है । यथा
'उवसातो कम्हि उवसामेदि, चदुस् वि गदीसु उवसामेदि । चदुसु वि गदीसु उवसातो पाँचदिएसु उवसामेदि, णो एइदियविलिदिएसु । पचिदिएसु उवसामॅतो सण्णीसु उवसामेदि, णो असण्णीसु । सण्णीसु उवसातो गम्भोवक्कतिएसु
१ पट्खा , पु०६, पृ० १ । २. पटख०, पु० ६, पृ० २३८