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________________ छक्खंडागम : १३९ अथवा निष्पन्न शरीरके योग्य परमाणु पुद्गलोका ग्रहण ) है वह बहुतसे साधारण जीवोका तथा उस एक ग्रहण करनेवाले जीवका भी है। तथा वहुत जीवोका जो अनुग्रहण है वह गिण्डरूपसे उस एक विवक्षित निगोदिया जीवका भी है। 'समग वक्कताण समगं तैसि सरीरणिप्पत्ती । समग च अणुग्गहण समग उस्सासणिस्सासो ॥१२४।।' "एक साथ उत्पन्न होनेवाले उन जीवोके शरीरकी निष्पत्ति एक साथ होती है। एक साथ अनुग्रहण होता है और एक साथ उछ्वास-निश्वास होता है।" 'जत्थेउ मरइ जीवो तत्थ दु मरणं भवे अणताण । वक्कमइ जत्थ एक्को वक्कमण तत्थ णताण ॥१२५।।' "जिस शरीरमे एक जीवका मरण होता है वहाँ अनन्त जीवोका भरण होता है और जिस शरीरमे एक जीव उत्पन्न होता है वहाँ अनन्त जीवोकी उत्पत्ति होती है ।।१२५॥" 'बादर-सुहुमणिगोदा बद्धा पुछा य एयमेएण । ते हु अणता जीवा मूलयथूहल्लयादीहि ॥१२६।।' "वादरनिगोदजीव और सूक्ष्मनिगोदजीव ये परस्परमे वद्ध और स्पृष्ट होकर रहते है। वे जीव अनन्त होते है और मूलक, थूहर, आर्द्रक आदि कारणोसे होते है।" 'अत्यि अणता जीवा जेहिं ण पत्तो तसाण परिणामो । भावकलंकअपउरा णिगोदवास ण मुंचति ॥१२७॥' "ऐसे अनन्त जीव है जिन्होने त्रसभावको प्राप्त नहीं किया, क्योकि वे भावकलक अर्थात् सक्लेशपरिणामोकी अधिकतासे युक्त होते है, इसलिये निगोदवासको नही छोडते।" 'एगणिगोदशरीरे जीवा दवप्पमाणदो दिट्ठा । सिद्धेहि अणतगुणा सव्वेण वि तीदकालेण ।।१२८॥' "एक निगोदिया जीवके शरीरमें द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा समस्त अतीत कालमें सिद्ध हुए जीवोसे भी अनन्तगुणे जीव देखे गये है।" ___ इनमेंसे गाथा न० १२२, १२३ और १२४ श्वे० प्रज्ञापनासूत्रके प्रथम पदमें भी पाई जाती है । वहाँ इनका क्रम विपरीत है अर्थात् १२४ (९५), १२३ (९६) और १२२ (९७) के क्रमसे है । गाथा १२३ में पाठभेद भी है । अस्तु, उक्त गाथाओके पश्चात् सूत्रकारने लिखा है'एदेण अट्टपदेण तत्थ इमाणि अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवति-सतपरू
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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