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१२० . जैनसाहित्यका इतिहास वेदनागतिविधान नाम दिया है। पहले लिग आये है कि जीवो गाय गम्ब कर्मपुद्गलस्पान्योकी वेदनारामा है । ति गाग द्वारा जीवमटेगी। गचरण होनपर उनसे अभिन्न कर्मरान्धोका गी सगार सातागयो । यदि ऐगा नहीं माना जायगा और कर्मप्रदगीको स्थित ही माना जायगा, तो देशान्तरम गये हुए जीवको सिद्धजीवके गगान मानना होगा। मयोंकि पूर्वमंचित गर्ग तो पूम्यानम ही स्थित है, उनका देशान्तर जाना मभव नहीं है । मत जीव गौर नगी पारतन्यस्वरुप सम्बन्धको बतलायो लिए और जीप्रदशी परिरगन्दका तु गोग ही है, इस बातको तिलाने के लिए उग अनुमोगरा गायन किया गया है। इसमे बतलाया गया है निगम, गग्रा और गहारनयी अपक्षा ज्ञानावरणीयवेदना कन्निन रियत है, पयोगिक नीप्रदनोगे नामप्रवेग स्थित ही रहते है। गौर उजवेदना कान्नित् नियत-अम्गित है, गयोमाग जीन जो प्रदेश जिग गगय गनारहित होते है उनमें रियत प्रदेश भी रियन होने है तया जो प्रदेश गनार करते है उनमें निर्मनरंग भी गगार करते है । न कि उसकी बेदना एक है, अत रह वेस्ना गित-अग्यित नही जाती है। दर्शनाररणीग, मोहनीय और अन्तराग कोको वेदना भी जानापरणीय गमान स्थित और स्थित-अस्थित होती है । वेदनीयमार्गकी बंदना कन्गित् रिपत है गोंकि चौदहमें गुणस्थानवी जीवो प्रदेश अवस्थित रहते है । तया वह कन्चित अस्थित और वायञ्चित् स्थित-रियत है । नाम, गोत्र और आयुगामी चंदना वेदनीयो तुल्य है क्योकि ये सब कर्म अघातिया है । प्रजुगूगनयकी अपेक्षा आठा कोंकी वेदना कञ्चित् स्थित और कञ्चित् अरियत है ।
इस अनुयोगद्वारमें १२ सून है । १२. वेदनाअन्तरविधान'
वेदनावेदनाविधान अनुयोगद्वारमें यह पाहा है कि वध्यगान कर्म भी वेदना है, उदीर्ण और उपशान्त कर्म भी वेदना है। उनमें जो वध्यमान वर्म है वह क्या वधनेके समयमें ही पक कर अपना फल देता है अथवा द्वितीयादिक समयोमें अपना फल देता है, यह बतलाने के लिये इस अनुयोगद्वारका अवतार हुमा है । वन्धके दो प्रकार है-अनन्तरवध और परम्परावन्य । मिथ्याल आदि प्रत्ययोके द्वारा कार्मणवर्गणारूप पुद्गलस्कन्धोके कर्मरूपसे परिणत होनेके प्रथम समयमें जो बन्ध होता है उसे अनन्तरवन्ध कहते है और वन्ध होनेके द्वितीय समयसे लेकर कर्मरूप पुद्गलस्कन्धो और जीवप्रदेशोका जो बन्ध होता है उसे परम्पराबन्ध कहते है।
१. पटख०, पु० १२, पृ० ३७० ।