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११८ जनसाहित्यका इतिहास
की वेदनाके बन्ध के कारणोगा विनार लिया गया है। नया-नैगम, गग्रह और व्यवहारनपी अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना प्राणातिपात (प्राणीने प्राणोका घातन ) प्रत्ययरो, मृपावादप्रत्ययगे ( अगत्यानन ), अवसादानप्रत्ययगे (चिना दी हुई वस्तुका गहण ), मैगुनप्रत्ययगे, परिगहप्रत्ययम, रात्रिभोजनप्रत्ययगे, क्रोध, मान, मागा, लोग, गग, ग, मोह नीर प्रेग पन्गयगे, निदानप्रत्ययगे, तथा अभ्याख्यान, नालह, पशून्य, गति, अति, उपधि, निगाति, मान, माया, मोप, मिथ्याज्ञान, गिथ्गादर्शन और प्रयोग प्रत्यग होती है। प्रत्ययका अ कारण है। अतः उक्त कारणोगे ज्ञानाचरणी बदना होती है। दोष गात गार्मोकी वेदना प्रत्यय भी इसी प्रकार जानने चाहिए।
उनी प्राणातिपात', गृपावाद, अदत्तादान, गैथुन और परिग्रह ये पांच पाप हैं, जिनका गर्वत. त्याग गहारत और पादेश त्याग अणुनत पहलाता है । अभ्याख्यान, कलह आदिको भगालपादेवने बारह भागागो म्पमे गिनाया है।
वेदनाप्रत्ययविधान पावल १६ गूत्र है । ९ वेदनास्वामित्व विधान
इरा अनुगोगटारले प्रयम गुम 'वयणमागित्त विहाणे त्ति' की धवलाटी कामे यह शका की गई है कि जिग जीनोमारा जो कर्म धिा गया है वह जीव उम कर्मकी वेदनाका स्वामी है, यह बात बिना कहे ही जानी जाती है, तब इग अनुयोगारकी क्या आवश्यकता है ? उगका समाधान करते हुए श्री वीरसेनरवामीने लिखा है कि कर्मो की उत्पत्ति न केवल जीवसे होती है और न केवल अजीवगे होती है । किन्तु मिथ्यात्य, अगयग, कपाय और योगको उत्पन्न करनेमे समर्थ पुद्गलद्रव्य
और जीव गमवन्धके कारण है। अत दो, तीन अथवा चार कारणोरो उत्पन्न होकर जीवमें स्थित वेदना उनमेरो एकके ही होती है, अन्यके नहीं होती, ऐसा नही कहा जा सकता। अत वेदनास्वामित्वका कथन करना उचित है ।
वंदनास्वामित्वका विधान करते हुए कहा गया है कि नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना कथञ्चित् जीवके होती है ।।२।। कथञ्चित् नोजीवके होती है ॥३॥ धवलामे लिखा है कि अनन्तानन्त विनसोपचयोसे १ 'पचमहव्यया पण्णत्ता, त जहा-सव्वातो पाणातिवायाओ वेरगण, जाव सव्वातो परिग्ग
हातो वेरमण । पचाणुव्वता पण्णत्ता, त जहा-थूलातो पाणावायातो वेरमण थूलातो मुमावायातो वेरमण थूलातो अदिन्नादाणातो वेरमण मदारसतोसे इच्छापरिमाणे।'स्थाना० रथा० ५, उ० १, सू० ३८९ । 'अभ्याख्यानकलहपैशुन्यासम्बद्धप्रलापरत्यरत्युपधिनिकृत्यप्रणतिमोपमम्यड मिथ्यादर्शना
त्मिका भापा द्वादशधा ।-त० वा०, पृ० ७५ । ३ पटख०, पु० १२, पृ० ०९४-२९५ ।