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________________ छक्खडागम ११५ है । यह एक वर्ग हुआ। इसे अलग स्थापित करना चाहिए। इसी क्रमसे उसके समान अन्य परमाणुओको भी ग्रहण करके प्रत्येकका प्रज्ञाके द्वारा छेदन करनेपर तत्सदृश ही अविभागी प्रतिच्छेद प्राप्त होते है । उन सव वर्गोके समूहकी दूसरी वर्गणा होती है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक अविभागी प्रतिच्छेदकी अधिकताके क्रमसे तीसरी, चौथी, पांचवी आदि वर्गणाओको उत्पन्न करना चाहिये । इन सब वर्गणाओके समूहको स्पर्धक कहते है । एक जघन्यस्थानमें ऐसे बहुतसे स्पर्धक होते है । इनका विस्तृत विवेचन धवलाटीकामें किया गया है। इस तरह अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणामें अविभागप्रतिच्छेदोका कथन है। एक जीवमें एक समयमें जो कर्मानुभाग पाया जाता है उसे स्थान कहते है । स्थानके दो भेद हैअनुभागवन्धस्थान और अनुभागसत्त्वस्थान । उनका वर्णन स्थानप्ररूपणामें है । एक स्थानसे उसके अनन्तरवर्ती स्थानमें कितना अन्तर होता है, इसका कथन अन्तरप्ररूपणामे किया गया है। छै वृद्धियां होती है-अनन्तभागवृद्धि, असख्यातभागवृद्धि, सख्यातभागवृद्धि, सख्यातगुणवृद्धि, असख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि । काण्डकप्रमाण पूर्ववृद्धिके होनेपर एक वार उत्तरवृद्धि होती है । यथा--काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धिके होनेपर एक बार असख्यातभागवृद्धि होती है। और काण्डकप्रमाण असख्यातभागवृद्धियोके होनेपर एक बार सख्यातभागवृद्धि होती है। इस प्रकार अनन्तगुणवृद्धि तक यही क्रम जानना चाहिये । एक स्थानमें इन वृद्धियोका विचार काण्डकप्ररूपणामे किया गया है। ओजयुग्मप्ररूपणामें कहा गया है कि अविभागी प्रतिच्छेद कृतयुग्म है, स्थान कृतयुग्म है और काण्डक कृतयुग्म है । इसका खुलासा करते हुए धवलाकार श्री वीरसेनस्वामीने लिखा है कि समस्त अनुभागस्थानोके अविभागी प्रतिच्छेद कृतयुग्म है, क्योकि उन्हे चारसे भाजित करनेपर कुछ शेप नहीं रहता। अत विवक्षित राशिमें चारसे भाग देनेपर जहाँ कुछ शेप नही रहता या दो शेप रहते है उसे युग्म कहते है और जहाँ एक या तीन शेप रहते है उसे ओज कहते है। ___ उक्त सब प्ररूपणाओका कथन सूत्रकारने तो केवल एक-एक सूत्रके द्वारा ही किया है। धवलाकारने प्रत्येकका व्याख्यान विस्तारमे करते हुए प्रत्येक प्ररूपणाका अभिप्राय व्यक्त किया है । पट्स्थानप्ररूपणामें बतलाया है कि अनन्तभागवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि में अनन्तसे जीवराशिका प्रमाण लेना चाहिये । असख्यातभागवृद्धि और असख्यातगुणवृद्धिमें असख्यातसे असख्यातलोकका प्रमाण लेना चाहिये। और सख्यातभागवृद्धि तथा सख्यातगुणवृद्धिमें मख्यातसे उत्कृष्टसख्यात लेना चाहिये । अधस्तन
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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