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सोमदेवसरिका नीतिवाक्यामृत
४ परमर्मज्ञः प्रगल्भः छात्रः कापटिकः ।-अर्थ० अ० ११, पृ० ७, ३ परमर्मज्ञः प्रगल्भः छात्रः कापटिकः ।-नी० पृ० १७३
५–श्रूयते हि शुकसारिकाभिः मन्त्रो भिन्नः श्वभिरन्यैश्च तिर्यग्योनिभिः । तस्मान्मन्त्रोद्देशमनायुक्तो नोपगच्छेत् । -अर्थ० अ० १५, प्र० ११,४०
अनायुक्तो न मन्त्रकाले तिष्ठेत् । श्रूयते हि शुकशारिकाभ्यामन्यैश्च तिर्यग्भिमन्त्र भेदः कृतः।
-नीति० पृ० ११८ ६-द्वादशवर्षा स्त्री प्राप्तव्यवहारा भवति । षोडशवर्षः पुमान् ।
-अर्थ० द्वि० खण्ड, तृ० अ० १-२ द्वादशवर्षा स्त्री षोडशवर्षः पुमान् प्राप्तव्यवहारौ भवतः ।
-नीति० ३७३ इस तरहके और भी अनेक अवतरण दिये जा सकते हैं । परन्तु इससे नीतिवाक्यामृतका महत्त्व कम नहीं होता । ऐसे विषयोंके ग्रन्थोंका अधिकांश भाग संग्रहरूप ही होता है । क्योंकि उसमें उन सब तत्त्वोंका समावेश तो नितान्त आवश्यक ही होता है जो ग्रन्थकर्ताके पूर्व-लेखकोंद्वारा उस शास्त्रक सम्बन्धमें निश्चित हो चुकते हैं। उनके सिवाय जो नये अनुभव और नये तत्त्व उपलब्ध होते हैं उन्हें ही वह विशेषरूपसे अपने ग्रन्थमें लिपिबद्ध करता है और हमारी समझमें नीतिवाक्यामृत ऐसे तत्त्वोंसे खाली नहीं है। ग्रन्थकर्ताकी स्वतंत्र प्रतिभा और मौलिकता उसमें जगह जगह प्रस्फुटित हो रही है ।
ग्रन्थकर्ताका परिचय गुरुपरम्परा-जैसा कि पहले कहा जा चुका है नीतिवाक्यामृतके कर्ता श्रीसोमदेवसूरि हैं । वे देवसंघके आचार्य थे। दिगम्बर-सम्प्रदायके सुप्रसिद्ध चार संघोंमेंसे यह एक है।
सोमदेवके गुरुका नाम नेमिदेव और दादागुरुका नाम यशोदेव था। यथा
श्रीमानस्ति च देवसंघतिलको देवो यशःपूर्वकः
शिष्यस्तस्य बभूव सद्गुणनिधिः श्रीनेमिदेवाह्वयः। तस्याश्चर्यतपः स्थितेस्त्रिनवतेर्जेतुर्महावादिनां, शिष्योऽभूदिह सोमदेव इति यस्तस्यैष काव्यक्रमः ॥
-यशस्तिलकचम्पू