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परिशिष्ट [ लेखों के छप चुकनेपर कुछ नई बातें मालूम हुई हैं, जो यहाँ क्रमशः दे दी जाता हैं।
लोकविभाग और तिलोयपण्णत्ति ( पृ० १-२२ ) १-नागहस्ति और आर्यमंक्षु गुणधरके साक्षात् शिष्य नहीं थे
आचार्य इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारके १५२-५४ पद्योंमें स्पष्ट लिखा है कि गुणधर आचार्यने अपने कषाय-प्राभृतको नागहस्ति और आर्यमंक्षुके लिए पन्द्रह महा अधिकारोंमें विभाजित करके व्याख्यान किया । अर्थात् उनके कथनानुसार नागहस्ति और आर्यभक्षुका गुणधर आचार्यसे साक्षात् परिचय था और यतिवृषभ उनके साक्षात् शिष्य थे । परन्तु जयधवला टीकामें एक जगह बतलाया है कि नागहस्ति और आर्यक्षुको गुणधर आचार्यसे साक्षात्में नहीं किन्तु परम्परासे कषाय-प्राभृतका ज्ञान प्राप्त हुआ। अतएव यहाँ उसका उल्लेख कर देना आवश्यक प्रतीत होता है.__“ वड्डमाणजिशिंदे णिव्वाणं गदे पुणो ६८३ एत्तिएसु वासेसु अइकंतेसु एदम्हि भरहखेत्ते सव्वे आइरिया सव्वेसिमंगपुव्वाणमेगदेसधारया जादा । तदो अंगपुव्वाणमेगदेसो चेव आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरियं संपत्तं । पुणो तेण गुणहरभडारएण णाणपवाद-पंचमपुव्व-दसमवत्थु-तदियकसायपाहुडमण्णवपारएण गंथवोच्छेदभएण वच्छलपरवसिकयाहेयएण एवं पेज्जदोसपाहुडं सोलसपदसहस्सपरिमाणं होतं असीदिमदमेत्तगाहाहिं उवसंहारिदं । पुणो ताओ चेव सुत्तगाहाओ आइरियपरंपराए आगच्छमाणाओ अज्जमखु-णागहत्थीण पत्ताआ। पुणो तेसिं दोण्हं पि पादमूले असीदिसदगाहाणं गुणहरमुहकमलविणिग्गयाणमत्थं सम्म सोऊण जयिवसहभडारएण पवयणवच्छलेण चुण्णिसुत्तं कयं ।”
रेखांकित वाक्यका शब्दार्थ यह है कि फिर वे ही सूत्र-गाथायें जो आचार्य परम्परासे चली आई थीं आर्य मंखु और नागहस्तिको प्राप्त हुई ।