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जैनसाहित्य और इतिहास
वज्जसूरि सुपसिद्धउ मुणिवरु, जेण पमाणगंथु किउ चंगउ । अर्थात् वज्रसूरि नामके सुप्रसिद्ध मुनिवर हुए जिन्होंने सुन्दर प्रमाण-ग्रंथ बनाया। जिनसेन और धवल दोनोंने ही वज्रसूीरका उल्लेख पूज्यपाद या देवनन्दिके बाद किया है, अतएव ये वही वज्रनन्दि मालूम होते हैं जो पूज्यपादके शिष्य थे औरं जिन्हें देवसेनसूरिने अपने दर्शनसारमें द्राविड संघका उत्पादक बतलाया है । नवस्तोत्रक अतिरिक्त इनका कोई प्रमाण ग्रन्थ भी था । आचार्य जिनसेनने उनके जिस बन्ध-मोक्षकी चर्चा करनेवाले ग्रन्थका संकेत किया है, वह शायद इन दोमेसे ही कोई हो अथवा कोई तीसरा ही हो । यह बात खास तौरसे ध्यान देने योग्य है कि जिनसेन तो उन्हें गणधर देवोंके समान प्रमाणिक मानते हैं और देवसेन जैनाभास बतलाते हैं !
३-महासेनकी सुलोचना कथा आचार्य जिनसेनने अपने हरिवंशपुराणकी उत्थानिकामें लिखा है
महासेनस्य मधुरा शीलालंकारधारिणी । ___ कथा न वर्णिता केन वनितेव सुलोचना ।। ३३ अर्थात् शीलरूप अलंकारको धारण करनेवाली, सुनेत्रा और मथुरा वनिताके समान महासेनकी सुलोचना-कथाकी प्रशंसा किसने नहीं की ?
कुवलयमालाके कर्ता श्वेताम्बराचार्य उद्योतनसूरिने भी शायद इसी सुलोचना कथाके विषयमें कहा है
सणिहियजिणवरिंदा धम्मकहाबंधदिक्खियणरिंदा ।
कहिया जण सुकहिया सुलायणा समवसरण व ॥ ३९ ॥ अर्थात् जिसने समवसरण जैसी सुकथिता सुलोचना कथा कही । जिस तरह समवसरणमें जिनेन्द्र स्थित रहते हैं और धर्मकथा सुनकर राजा लोग दीक्षित होते हैं, उसी तरह सुलोचना कथामें भी जिनेन्द्र सन्निहित हैं और उसमें राजाने दीक्षा ले ली है।
उद्योतनसूरिने जिनसेनसे पाँच वर्ष पहले अपने ग्रन्थकी रचना की थी, अतएव आधिक संभावना यही है कि इन दोनों के द्वारा प्रशंसित 'सुलोचना कथा' एक ही है और महासेन विक्रमकी संवत् ८३५ के पहलेके हैं। बहुत करके यह कथा प्राकृत भाषामें होगी।