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जैनसाहित्य और इतिहास
जयकीर्तिके सम्बन्धमें अपने नोट ( पृष्ठ ६१ ) में लिखा है कि " वर्द्धमानको नमस्कार करनेसे यह कवि जैन मालूम होता है। उसने अन्तमें बतलाया है कि जयदेव आदि विद्वानोंके छन्दोंको देखकर यह ग्रन्थ बनाया । सं० ११९२ में योगसारके लिखनेवाले अमलकीर्ति इसके शिष्य जान पड़ते हैं । प्राकृत शीलोपदेशमालाका प्रणेता जयकीर्ति इससे भिन्न है, क्योंकि वह आपको जयसिंहसूरिका शिष्य प्रकट करता है ।”
हमारी समझमें जयकीर्ति दिगम्बर सम्प्रदायके ही विद्वान् हैं । क्योंकि एक तो वे पूज्यपादका उल्लेख करते हैं, दूसरे योगसार ग्रन्थ भी दिगम्बर सम्प्रदायका है जिसे उनके शिष्यने लिखवाया है, तीसरे जयकीर्ति, अमलकीर्ति, वामकीर्ति इस प्रकारका कीर्त्यन्त नाम-परम्परा दिगम्बर सम्प्रदायमें ही अधिक देखी जाती है ।
१६ वर्द्धमाननमस्कारमङ्गलकरणेनायं कविर्जनः प्रतिभाति । माण्डव्य-पिंगल-जनाश्रयसेतव-पूज्यपाद-जयदेवबुधादीनां छन्दांसि वीक्ष्यंतच्छंदोऽनुशासनं विहितमिति प्रान्ते दर्शि. तम् ।सं० ११९२ वर्षे योगसारलेखिताऽमलकीतिरस्य शिष्यो शायते । प्राकृतशीलोपदेशमालायाः प्रणेता जयकीत्तिः स्वं जयसिंहसूरिशिष्यत्वेन परिचायतिस्म, स त्वस्माद्भिन्नी विज्ञायते । " __२ पं० जुगल किशोरजी मुख्तारने बतलाया है कि चित्तौड़गडमें एक शिलालेख (ए. इं० जिल्द २ ) मिला है जो जयकीर्तिके शिष्य रामकीर्तिका है । उसमें रामकीर्तिने अपनेको दिगम्बराचार्य लिखा है
" श्रीजयकीर्तिशिष्येण दिगम्बरगणेशिना । प्रशास्तिरीदृशीचक्रे...श्रीरामकीर्तिना ॥
संवत् १२०७ सूत्रधा......" इसके १२०७ संवत्को देखते हुए छन्दोनुशासनके कर्ता जयकीति ही रामकीर्तिके गुरु जान पड़ते हैं । अमलकीर्ति रामकीर्तिके ही गुरुभाई होंगे।