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________________ मुनि रत्नसिंहका प्राणप्रिय काव्य यह छोटा-सा खण्ड काव्य बड़ा ही सुन्दर और प्रसादगुणयुक्त है । आचार्य मानतुंगके सुप्रसिद्ध भक्तामरस्तोत्र के चौथे चरणों की समस्यापूर्ति रूपमें इसकी रचना की गई है । अन्तका ४९ वाँ पद्य उसके कर्ताका परिचय इस प्रकार देता हैश्रीसिंहसंघसुविनेयक-धर्मसिंह-पादारबिन्दमधुलिङ्मनिरत्नसिंहः।। भक्तामरस्तुतिचतुर्थपदं गृहीत्वा, श्रीनेमिवर्णनमिदं विदधे कवित्वम् ।। अर्थात् सिंह संघके अनुयायी धर्मसिंहके चरण-कमलों में भ्रमरके समान अनुरक्त मुनि रत्नसिंहने यह नेमिनाथ भगवानका वर्णन करनेवाला काव्य बनाया। सिंह संघकी कोई पट्टावली अभी तक उपलब्ध नहीं है, जिससे मुनि रत्नसिंहके समयादिका कुछ पता लगाया जा सके । ये किस प्रान्त हुए हैं, इसके जाननेका भी कोई साधन नहीं है । इनकी और कोई रचना भी प्राप्य नहीं है । बसवा (जयपुर) के स्व. पंडित सुन्दरलालजीको यह काव्य कण्ठस्थ था, एक बार जब वे बम्बई आये थे, तब उन्होंने मुझे लिखा दिया था और तभी मैंने इसका हिन्दी अनुवाद करके मूलके सहित प्रकाशित भी कर दिया था। इसमें भक्तामरके ४८ पद्यों की समस्यापूर्ति की गई है, इस लिए यह स्पष्ट है कि इसके कत्ती दिगम्बर सम्प्रदायके हैं और सिंह संघ भी इसी सम्प्रदायका है। दिगम्बर सम्प्रदायमें भक्तामरस्तोत्रके ४८ पद्य माने जाते हैं और श्वेताम्बर सम्प्रदायमें ४४ । इसका प्रारंभिक पद्य 'प्राणप्रियं नृप सुता' आदिसे शुरू होता है, इस लिए यह 'प्राणप्रिय काव्य ' नामसे प्रसिद्ध है। इस काव्यके बानगीके तौरपर सिर्फ दो अतिशय सरस पद्य दे दिये जाते हैं तत्किं वदामि रजनीसमये समेत्य, चन्द्रांशवो मम तनुं परितः स्पृशान्त । दरे धवे सति विभो परदारशक्तान , कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥ १४ पूर्व मया सह विवाहकृते समागाः, मुक्तिस्त्रियास्त्वमधुना च समुद्यतोऽसि । चेच्चञ्चलं तव मनोऽपि बभूव हा तत् , किं मन्दरादिशिखरं चलितं कदाचित् १५ १ दखा जनहितैषी भाग ६, अंक १ और २-३ ! २ प्राणप्रियं नृपसुता किल रैवताद्रिशृंगाग्रसंस्थितमवोचदिति प्रगल्भ्यम् । अस्मादृशामुदितनील वियोगरूपेऽवालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ।।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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