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तीन महान् ग्रन्थकर्ता
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ली जाय तो वे श० सं० ७४० के लगभग जन्मे होंगे परन्तु उन्होंने उत्तर-पुराणकी समाप्ति कब की और वे कब तक जीते रहे इसका पता नहीं लगता।
उत्तरपुराण कर समाप्त हुआ ? उत्तरपुराणकी प्रशस्तिके अनुसार हमने अपने पहले लेखमें उसकी समाप्तिका समय श० सं० ८२० माना था और अन्य विद्वान् भी यही मानते आ रहे हैं; परन्तु इस लेखके लिखते समय यह बात बुरी तरह खटकी कि इतने महान् आचार्यका ग्रन्थ जिसके एकसे एक बढ़कर गुरुभाई और शिष्य मौजूद थे, लगभग ५० वर्ष तक अधूरा कैस पड़ा रहा होगा । तब प्रशस्तिका बारीकीसे अध्ययन करना पड़ा और उससे मालूम हुआ कि उपलब्ध प्रशस्तिके दो हिस्से हैं । पहला हिस्सा एकसे लेकर सत्ताईसवें पद्य तकें है और दूसरा अट्ठाईसवेसे ब्यालीसवें पद्य तक । पहले के कर्ता हैं गुणभद्रस्वामी और दूसरे हिस्सेके कर्त्ता उनके शिष्य लोकसेन मुनि । प्रति-लेखकोंकी कृपासे दोनों हिस्से मिलजुलकर एक हो गये हैं।
गुणभद्रस्वामीने अपनी प्रशस्तिके प्रारंभके १९ पद्योंमें अपने संघकी और गुरुओंकी महिमाका परिचय दिया है और फिर बीसवें पद्यमें लिखा है कि अतिविस्तारके भयसे और अतिशय हीनकालके अनुरोधसे अवशिष्ट महापुराणको मैंने संक्षेपमें संग्रह किया। फिर पाँच छह श्लोकोंमें ग्रन्थका महात्म्य वर्णन करके अन्तके २७ वें पद्यमें कहा है कि भव्यजनोंको इसे सुनना चाहिए, व्याख्यान करना चाहिए, चिन्तवन करना चाहिए, पूजना चाहिए और भक्तजनोंको इसकी १ शकनृपकालाभ्यन्तरविंशत्यधिकाष्टशतमिताब्दान्ते । मङ्गलमहार्थकारिणि पिङ्गलनामनि समस्तजनसुखदे ॥ ३५ ॥ श्रीपञ्चम्यां बुधा युजि दिवसकरे मन्त्रिवारे बुधांशे पूर्वायां सिंहलग्ने धनुषि धरणिजे वृश्चिकाओं तुलायाम् । सर्प शुक्रे कुलीरे गवि च सुरगुरौ निष्ठितं भव्यवयः
प्राप्तेज्यं सर्वसारं जगति विजयते पुण्यमेतत्पुराणम् ॥ ३६ ।। २ ये पद्यसंख्यायें पं० लालारामजीशास्त्रीद्वारा प्रकाशित उत्तरपुराणकी प्रशस्तिके अनुसार दी गई हैं।