________________
५१०
जैनसाहित्य और इतिहास
विस्तार उसके प्रथम अंश आदिपुराणका है, यदि वही ढंग आगे भी कायम रक्खा जाता तो यह ग्रन्थ महाभारत जैसा विशाल होता, और भगवजिनसेनकी इच्छा भी शायद यही थी; परन्तु गुणभद्रने अतिशय विस्तारके भयसे और हीनकालके अनुरोधसे थोड़ेमें ही समाप्त करना उचित समझा और इस तरह केवल आठ हजार श्लोकोंमें ही शेष तेइस तीर्थंकरों और अन्य महापुरुषोंका चरित लिख डाला और इस तरह उन्होंने गुरुके प्रति अपने कर्तव्यका पालन किया।
गुणभद्र बड़े ही गुरुभक्त थे। काव्य-प्रतिभा भी उनकी बढ़ी चढ़ी थी। गुरुकी अधूरी रचनामें हाथ लगाते समय उन्होंने जो थोड़ेसे पद्य लिखे हैं, वे इस गुरुभाक्त और काव्य-प्रतिभाको बहुत ही स्पष्ट रूपसे प्रकट करते हैं । वे कहते हैं
गन्नेके समान इस ग्रन्थका पूर्वार्ध ही रसावह है, उत्तरार्धमें तो ज्यों त्यों करके ही रसकी प्राप्ति होगी। गन्नका प्रारम्भका (नीचेका) भाग ही स्वादिष्ट होता है, ऊपरका नहीं। यदि मेरे वचन सरस या सुस्वादु हो, तो यह गुरुका ही माहात्म्य समझना चाहिए। यह वृक्षोंका स्वभाव है कि उनके फल मीठे होते हैं। वचन हृदयसे निकलते हैं और हृदयमें मेरे गुरु विराजमान हैं। तब वहाँसे वे उनका संस्कार करेंगे ही। इसमें मुझे परिश्रम न करना पड़ेगा, गुरुकृपासे मेरी रचना संस्कारकी हुई ही होगी। * भगवजिनसेनके अनुयायी तो पुराण ( पुराने ) मागके आश्रयसे संसार-समुद्रसे पार होना चाहते हैं, फिर मेरे लिए पुराण-सागरके पार पहुँचना क्या कठिन है ?" १- अतिविस्तरभीरुत्वादवशिष्टं संग्रहीतममलधिया ।
गुणभद्रसूरिणेदं प्रहीणकालानुरोधेन ॥ १९ ॥ २- इक्षोरिवास्य पूर्वार्द्धमेवाभावि रसावहम् ।
यथातथास्तु निष्पत्तिरिति प्रारभ्यते मया ॥ १४ ।। ३-गुरूणामेवमाहात्म्यं यदपि स्वादु मद्वचः ।
तरूणां हि स्वभावोऽसौ यत्फलं स्वादु जायते ॥ १७ ॥ ४- -निर्यान्ति हृदयावाचो हृदि मे गुरुवः स्थिताः ।
ते तत्र संस्कारिष्यन्ते तन्न मेऽत्र परिश्रमः ॥ १८ ॥ ५-पुराणं मार्गमासाद्य जिनसेनानुगा ध्रुवम् ।
भवाब्धेः पारमिच्छन्ति पुराणस्य किमुच्यते ॥ १९ ॥