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जैनसाहित्य और इतिहास
परली पार पहुँच गये। जिनका काल निरन्तर ज्ञानकी आराधनामें ही व्यतीत हुआ और इसलिए तत्त्वदर्शियोंने जिन्हें ज्ञानमय पिंड या ज्ञानशरीरी कहाँ । __ जिनसेन सिद्धान्तोंके ज्ञाता तो थे ही, कवि भी उच्च कोटिके थे । जयधवलाटीकाके शेष भागके सिवाय उनके दो ग्रन्थ और भी उपलब्ध हैं, एक पाश्र्वाभ्युदय काव्य और दूसरा आदिपुराण ।
१ पार्वाभ्युदय-यह ३६४ मन्दाक्रान्ता वृत्तोंका एक खण्ड काव्य है और संस्कृत साहित्यमें अपने ढंगका अद्वितीय है । इसमें महाकवि कालिदासका सुप्रसिद्ध काव्य मेघदूत सबका सब वेष्टित है । मेघदूतमें जितने भी पद्य हैं और उनके जितने भी चरण हैं वे सब एक एक या दो दो करके इसके प्रत्येक पद्यमें प्रविष्ट कर लिये गये हैं, अर्थात् मेघदतके प्रत्येक चरणकी समस्यापूर्ति के रूपमें यह कौतुकावह काव्य निर्मित हुआ है । मेघदूतके अन्तिम चरणोंको लेकर तो अनेक काव्य लिखे गये हैं, परन्तु सारे मेघदूतको वेष्टित कर लेनेवाला यह एक ही काव्य है और इसकी महत्ता उस समय और भी बढ़ जाती है जब हम देखते हैं कि पार्श्वनाथचरितकी कथामें और मेघदूतके विरही यक्षकी कथामें कोई समानता नहीं है । इन सब कठिनाइयोंके होते हुए भी यह काव्य बहुत ही सुन्दर और सरस बन पड़ा है।
इस काव्यकी रचना जिनसेनस्वामीने अपने सधर्मा विनयसेनकी प्रेरणासे की थी और यह इनकी सबसे पहली रचना मालूम होती है। ___ योगिराट् पण्डिताचार्य नामके किसी विद्वान्ने इस काव्यकी एक संस्कृत टीका लिखी है जो विक्रमकी पन्द्रहवीं सदीके बादकी है। उन्होंने लिखा है कि कवि
१-ज्ञानाराधनया यस्य गतः काली निरन्तरम् ।
ततो ज्ञानमयं पिण्डं यमाहुस्तत्त्वदर्शिनः॥ ३४ ॥ २ मैंने अपने ' जिनसेन और गुणभद्राचार्य ' शीर्षक विस्तृत लेखमें जो सन् १९१२ में प्रकाशित हुआ था, पाश्र्वाभ्युदयके बहुतसे पद्य अनुवादसहित दिये हैं और इस काव्यकी विशेषताओंपर भी विस्तारके साथ लिखा है ।
३ पार्श्वभ्युदय-टीकामें जगह जगह 'रत्नमाला' नामक कोशके प्रमाण दिये हैं और इस रत्नमालाका कर्ता — इरुग्दण्डनाथ ' विजयनगरनरेश हरिहरराजके समय श० सं० १३२१ ( वि० सं० १४५६ ) के लगभग हुआ है । अतएव पंडिताचार्य उससे पीछेके हैं।