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ज्योतिः प्रभाकल्याण नाटक
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लगभग पचास वर्ष हुए ' काव्याम्बुधि ' नामका एक संस्कृत मासिक पत्र उस समय के सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् पं० पद्मराजने बंगलोरसे निकालना शुरू किया था, जो निर्णयसागर प्रेसकी सुप्रसिद्ध काव्य- मालाके ढंगका था । इसमें केवल जैन काव्यों के प्रकाशित करनेकी व्ययस्था की गई थी । इसका एक अंक बिना टाइटिलका मेरे संग्रह में है जिसमें पद्मनन्दिकी एकत्व - सप्तति' के ५१ पद्म व्याख्यासहित और श्रीब्रह्मसूरिके ' ज्योतिप्रभाकल्याण नाटक ' के दो अंक पूरे और तृतीयांक के तीन पेज और हैं। दोनों ग्रन्थोंके डिमाई साइजके चौवीस चौवीस पेज दिये गये हैं । मालूम नहीं इससे आगे और कितने अंक इस पत्रके निकले | यदि एक दो अंक ही और निकले हों तो ये दोनों ग्रन्थ उनमें पूर्ण हो गये होंगे । इनमें से ' एकत्व - सप्तति' तो ' पद्मनन्दि - पंचविंशतिका ' के अन्तर्गत प्रकाशित हो चुकी है और इस लिए सुलभ है; परन्तु ' ज्योतिःप्रभाकल्याण ' नाटक दुर्लभ है ।
यह सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनार्थके पूर्वभवसम्बन्धी अमिततेज विद्याधर और ज्योतिःप्रभाके कथानकको लेकर रचा गया है और भगवद्गुणभद्रका उत्तरपुराण इसका मूल है | इसके कर्त्ता ब्रह्मसूरि हैं' जो नाट्याचार्य हस्तिमलके वंशज हैं और उनसे लगभग सौ वर्ष बाद विक्रमकी पन्द्रहवीं शताब्दि में हुए हैं और जिनके त्रिवर्णाचार और प्रतिष्ठातिलक ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । नाटकके अन्तमें कविने शायद अपना परिचय दिया हो और उससे कुछ अधिक प्रकाश उसके सम्बन्ध में पड़ सके ।
शान्तिनाथ भगवानके जन्म कल्याण के पूजा - महोत्सव के दिन खेलने के लिए इस नाटककी रचना हुई थी । नाटककी रचना सुन्दर मालूम होती है ।
१ प्रदोषे जायते प्रातः किं का मंगलवाचकम् |
किं रूपयन्तु तच्चेह ब्रह्मसूरिकृतिश्च का ॥