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________________ ४८० जैनसाहित्य और इतिहास इसके सिवाय उन्होंने भगवजिनसेन और वादिराजद्वारा स्मृत वादिसिंहको भी वादीभसिंह ही होने की संभावना प्रकट की है। __ पहले मेरा भी यही खयाल था; परन्तु अब मैं ओडयदेव या वादीभसिंहको इतना प्राचीन नहीं समझता । मेरी समझमें एक वादिसिंह या वादीभसिंह भगवज्जिनसेनसे पहले हुए जरूर हैं जिनका वास्तविक नाम मालूम नहीं है और आप्तमीमांसापर भी शायद उन्हींकी कोई टीका थी परन्तु गद्यचिन्तामाणकारसे वे पृथक् हैं, यद्यपि वे भी कवि, वादी और तार्किक थे। इसके सिवाय अकलंकदेवके सधर्मा पुष्पसेनके ही वे शिष्य थे, यह भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। सोमदेवका शिष्यत्व श्रुतसागरमूरिने यशस्तिलककी टीका ( आश्वास २ ) में वादिराज महाकविका एक पद्य उद्धृत करके लिखा है कि ये वादिराज भी सोमदेवके शिष्य हैं। क्योंकि सोमदेव कहते हैं कि 'वादीभसिंह भी मेरे शिष्य हैं और वादिराज भी।' परन्तु श्रुतसागरके इस कथनपर विश्वास नहीं किया जा सकता। क्योंकि एक तो उन्होंने यह बतलाने की कृपा नहीं की कि सोमदेवने उक्त वचन किस ग्रन्थमें किस प्रसंगपर कहा है और दूसरे सोमदेवने अपने यशस्तिलकको शक संवत् ८८१ ( वि० सं० १०१६ ) में पूरा किया है और वादिराजने अपना पार्श्वनाथचरित श० सं० ९४७ ( वि० सं० १०८२ ) में उनसे ६६ वर्ष बाद । इसके सिवाय वादिराज स्वयं अपने गुरुका नाम मतिसागर बतलाते हैं और वादीभसिंह अपने गुरुका नाम पुष्पसेन । अतएव कमसे कम गद्यचिन्तामणिके कर्ता वादीभसिंहको तो सोमदेवका शिष्य किसी तरह नहीं माना जा सकता। १-स्याद्वादगिरिमाश्रित्य वादिसिंहस्य गर्जिते । दिङ्नागस्य मदध्वंसे कीर्तिभंगो न दुर्घटः ॥-पा० च० २-“ उक्तं च वादिराजमहाकविना--- कर्मणा कवलिता जनिता जातः पुरान्तरजनंगमवाटे । कर्मकोद्रवरसेन हि मत्तः किं किमत्येशुभधाम न जीवः । स वादिराजोऽपि श्रीसोमदेवाचार्यस्य शिष्यः । ' वादीभसिंहोऽपि मदीयशिष्यः श्रीवादीराजोऽपि मदीयशिष्यः' इत्युक्तत्वाच्च । " 'कर्मणाकवलिता' पद्य वादिराजके किस ग्रन्थका है, यह भी मालूम नहीं हो सका । पार्श्वचरितमें तो यह है नहीं।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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