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आचार्य शुभचन्द्र और उनका समय
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शुद्धिसे अखंडित रत्नत्रयको स्वीकार किया । ___ उस विरक्ताने नवयौवनकी उम्रमें ऐसा कठिन तप करना आरम्भ किया कि सजनोंने उसकी 'साधु साधु' कहकर स्तुति की। । उसने यम, व्रत और तपके उद्योगसे, स्वाध्याय ध्यान और संयमसे तथा कायक्लेशादि अनुष्ठानोंसे अपने जन्मको सफल किया । । उसने निरन्तर बाह्य और अन्तरंग दुष्कर तप तपकर कषाय-रिपुओंके साथ साथ अपने सारे शरीरको भी सुखा डाला। । उसने अपनी विनयाचार-सम्पत्तिसे सारे संघकी उपासना की और वैयावृत्ति करके अपनी कीर्तिको दिगन्तरोंतक पहुँचा दिया ।
जिन पौरजनोंने उसे पहले देखा था वे भी इस तरहका वितर्क करने लगे कि न जाने यह साक्षात् भारती ( सरस्वती) देवी है या शासनदेवता है।।
उस जाहिणी आथिकाने कर्मोंके क्षयके लिए यह ज्ञानार्णव नामकी पुस्तक ध्यान-अध्ययनशाली, तप और शास्त्रके निधान, तत्त्वोंके ज्ञाता और रागादिरिपुओंको पराजित करनेवाले मल्ल जैसे शुभचन्द्र योगीको लिखाकर दी।
वैशाख सुदी १०, शुक्रवार, वि० सं० १२८४ को गोमंडल ( गोंडलकाठियावाड़ ) में दिगम्बर राजकुल (भट्टारक ? ) सहस्रकीर्तिके लिए पं० केशरीके पुत्र वीसलने लिखी।
ऐसा मालूम होता है कि इस पुस्तकमें लिपि-कर्त्ताओंकी दो प्रशस्तियाँ हैं । पहली प्रशस्तिमें तो लिपिक का नाम और लिपि करनेका समय नहीं दिया है, सिर्फ लिपि करानेवाली जाहिणीका परिचय और जिन्हें प्रति भेंट की गई है उनका नाम दिया है।
हमारी समझमें आर्यिका जाहिणीने जिस लेखकसे उक्त प्रति लिखाई होगी, उसका नाम और समय भी अन्तमें अवश्य दिया होगा; परन्तु दूसरे लेखकने उक्त पहली प्रतिका वह अंश अनावश्यक समझकर छोड़ दिया होगा और अपना नाम और समय अन्तमें लिख दिया होगा । इस दूसरी प्रतिके लेखक पं० केशरीके पुत्र वीसल हैं और उन्होंने गोंडलमें श्रीसहस्रकीर्तिके लिए इसे लिखा था जब कि पहली प्रति नृपुरीमें श्रीशुभचन्द्र योगीके लिए लिखाकर दी गई थी।
जब दूसरी प्रति वि० सं० १२८४ की लिखी हुई है, तब पहली प्रति अवश्य ही उससे काफी पहले लिखी गई होगी। नृपुरी स्थान कहाँ है, ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता । संभव है, यह ग्वालियर राज्यका नरवर हो । नरपुर और