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________________ आचार्य जिनसेन और उनका हरिवंश ક૨૭ मारवाड़ और फिर श० ७०५ से पहले मालवा । इसके बाद ७०७ में ध्रुवराजने मालव-राजकी सहायताके लिए चढ़ाई करंक वत्सराजको मारवाड़की अर्थात् जालोरकी ओर खदेड़ दिया होगा और मालवेका पुराना राजा यह इन्द्रायुध ही होगा जिसकी सहायता ध्रुवराजने की थी। यह निश्चित है कि कन्नौजका साम्राज्य जो बहुत विस्तृत था और जिसमें मारवाड़ और मालवा भी शामिल था इसी वत्सराजके पुत्र नागभटने इसी इन्द्रायुधके पुत्र चक्रायुधसे छीना था और इस प्रवृत्तिका प्रारंभ वत्सराजके समयसे ही हो गया था। पहले ध्रुवराजने इसमें वाधा डाली परन्तु पीछे उक्त साम्राज्य प्रतीहारोंके ही हाथमें चला गया । इन सब बातोंसे हरिवंशकी रचनाके समय उत्तरमें इन्द्रायुध और पूर्वमें वत्सराजका राज्य होना ठीक मालूम होता है । ४ वीर जयवराह----यह पश्चिममें सौरोंके अधिमण्डलका राजा था। सौरोंके अधिमंडलका अर्थ हम सौराष्ट्र ही समझते हैं जो काठियावाड़ का प्राचीन नाम है । सौर लोगोंका राष्ट्र सो सौर-राष्ट्र या सौराष्ट्र । सौराष्ट्रसे बढ़वाण और उससे पश्चिमकी आरके प्रदेशका ही ग्रन्थकर्ताका अभिप्राय जान पड़ता है । यह राजा किस वंशका था, इसका ठीक ठीक पता नहीं चलता । हमारा अनुमान है कि बहुत करके यह चालुक्य वंशका ही कोई राजा होगा और · वराह' उसको उसी तरह कहा गया होगा जिस तरह कीर्तिवर्मा ( द्वि० ) को ' महा वराह' कहा है । बड़ोदामें गुजरातके राष्ट्रकूट राजा कर्कराजका श० सं० ७३४ का एक ताम्रपत्र मिला है जिसमें राष्ट्रकुट कृष्णके विषयमें कहा है कि उसने कीर्तिवर्मा महा वराहको हरिण बना दिया । चौलुक्योंके दानपत्रों में उनका राजचिह्न वराह मिलता है, इसीलिए कविने कीर्तिवर्माको महा-वराह कहा है । धराश्रय भी वराहका पयायवाची है । इसलिए और भी कई चौलुक्य राजाओंके नामके साथ यह धराश्रय पद विशेषणके रूपमें जुड़ा हुआ मिलता है । जैसे गुजरातके चौलुक्योंकी दूसरी शाखाके स्थापनका जयसिंह धराश्रय, तीसरी शाखाके मूल १ इण्डियन एण्टिक्वेरी भाग १२, पृ० १५९ । २ यो युद्धकण्डूतिगृहीतमुच्चैः शौर्योष्मसंदीपितमापतन्तम् । महावराहं हरिणीचकार प्राज्यप्रभावः खलु राजसिंहः ।।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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