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जैनसाहित्य और इतिहास
परिवर्द्धमान विपुलश्री ' और हरिषेणने ' कार्त्तस्वरापूर्णजनाधिवास' कहा है। कल्याण', और ' कार्त्तस्वर ' ये दोनों शब्द सुवर्ण या सोनेके वाचक भी हैं । सुवर्णके अर्थ में कल्याण शब्द संस्कृत कोशों में तो मिलता है पर वाङ्मय में विशेष व्यवहृत नहीं है । हाँ, भावदेवकृत पार्श्वनाथचरित आदि जैन संस्कृत ग्रन्थोंमें इसका व्यवहार किया गया है । जिनसेनने भी उसी अर्थ में उपयोग किया है । अर्थात् दोनोंके ही कथनानुसार वर्द्धमानपुर के निवासियों के पास सोनेकी विपुलता थी, वह बहुत धनसम्पन्न नगर था और दोनों ही ग्रन्थकर्त्ता पुन्नाट संघके हैं, इसलिए दोनों ग्रन्थोंकी रचना एक ही स्थानमें हुई है, इसमें सन्देह नहीं रहता' ।
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चूँकि पुन्नाट और कर्नाटक पर्यायवाची हैं, इसलिए हमने पहले अनुमान किया था कि वर्द्धमानपुर कर्नाटक प्रान्त में ही कहीं पर होगा; परन्तु अभी कुछ ही समय पहले जब मेरे मित्र डा० ए० एन० उपाध्येने हरिषेणके कथाकोशकी चर्चा के सिलसिले में सुझाया कि वर्द्धमानपुर काठियावाड़का प्रसिद्ध शहर बढ़वाण मालूम होता है, और उसके बाद जब हमने हरिवंशमें बतलाई हुई उस समय की भौगोलिक स्थितिपर विचार किया, तब अच्छी तरह निश्चय हो गया कि बढ़वाण ही वर्द्धमानपुर है ।
हरिवंशके अन्तिम सर्ग के ५२ पद्य में लिखा है कि शक संवत् ७०५ में, जब कि उत्तर दिशाकी इन्द्रायुध नामक राजा, दक्षिण की कृष्णका पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्व दिशाकी अवन्तिभूप वत्सराज और पश्चिम के सौरों के अधिमण्डल या सौराष्ट्रकी वीर जगबराह रक्षा करता था, तब इस ग्रन्थकी रचना हुई ।
यदि वर्द्धमानपुरको कर्नाटक में माना जाय, तो उसके पूर्व में अवन्ति या मालवेकी, दक्षिण में श्रीवल्लभ ( राष्ट्रकूट ) की और इसी तरह दूसरे राज्योंकी अवस्थिति ठीक नहीं बैठ सकती । परन्तु जैसा कि आगे बतलाया गया है, काठियावाड़ में माननेसे ठीक बैठ जाती है ।
इतिहासज्ञों की दृष्टिमें यद्यपि हरिवंशका पूर्वोक्त पद्य बहुत ही महत्त्वका रहा है और उस समयके आसपासका इतिहास लिखनेवाले प्रायः सभी लेखकोंने इसका
१ आगे 'हरिपेणका आराधना - कथाकोश ' लेखमें बतलाया है कि उस समय विनायक - पाल नामका जो राजा था, वह भी काठियावाड़का ही था ।
२ देखो माणिकचन्द्र-जैन-ग्रन्थ-मालाके ३२-३३ वें ग्रन्थ हरिवंशकी भूमिका और जैनहितैषी भाग १४ अंक ७-८ में ' हरिपेणका कथाकोश ' शीर्षक लेख ।