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लोकविभाग और तिलोयपण्णत्ति
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तरह प्रज्ञाश्रमणों में सबसे अंतिम वइरजस या वज्रय योंमें श्रुतविनयशीलादिसम्पन्न श्री ( ? ) नामके मुनि अन्तिम चन्द्रगुप्त ( मौर्य ? ) ने जिनदीक्षा धारण की। प्रव्रज्या या दीक्षा नहीं ग्रहण की ।। ६९-७१ ॥
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और अवधिज्ञानि
मुकुटधर राजाओंमें सबसे इसके बाद किसी राजाने
मंदी य दिमित्तो विदिओ अवराजिदं तदं जाई । गोवद्धणो चउत्थो पंचमओ भद्रबाहु त्ति ॥ ७२ ॥ पंच इमे पुरिसवरा चउदसपुथ्वी जगम्मि विक्खादा | ते बारसभंगधरा तित्थे सिविडूमाणस्स ॥ ७३ ॥ पंचाण मेलिदाणं कालपमाणं हवेदि वाससदं । वारिंमि य पंचमए भरहे सुदकेवली णत्थि ॥ ७४ ॥ अर्थ – नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन, और भद्रबाहु ये पाँच पुरुषश्रेष्ठ चतुर्दशपूर्वधारी कहलाये । ये द्वादशांग के ज्ञाता थे । इन पाँचोंका एकत्रित I समय एक सौ वर्ष होता है । इनके बाद भरत क्षेत्र में इस पंचम कालमें और कोई श्रुतवली नहीं हुआ ।। ७२-७४ ॥
पढमो विसाहणामो पुट्ठिल्लो खत्तिओ जओ जागो । सिद्धत्थो धिदिसेणो विजओ बुद्धिल्लगंगदेवा य ॥ ७५ ॥ एक्करसो य सुधम्मो दसपुव्वधरा इमे सुविक्खादा | पारंपरिउवगमदो तेसीदिसदं च ताण वासाणि ॥ ७६ ॥
१' प्रज्ञाश्रमण ' ऋद्धिको धारण करनेवाले । धवलाटीका में पण्ह - समणोंको नमस्कार किया गया है और प्रज्ञाश्रमणत्व ऋद्धिकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि ' प्रज्ञा एव श्रवणं येषां ते प्रशाश्रवणः ।
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२ श्वेतांबर सम्प्रदाय में अज्ज वइर या आर्य वज्र के नामसे शायद इन्हींका उल्लेख मिलता है । कल्पसूत्र - स्थविरावलीके अनुसार ये आर्य सिंहगिरिके शिष्य और गोतमगोत्रीय थे । तपागच्छ-पट्टावली के अनुसार ये दशपूर्ववित् थे वीर नि० सं० ४९६ में इनका जन्म हुआ था, और ५८४ में स्वर्गवास । ये दक्षिणापथको गये थे भूमिका पृ० ३६ आदि ।
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- देखो धवला दू० भा०,
३ कहीं कहीं इनका नाम विष्णु भी मिलता है। पूरा नाम शायद विष्णुनन्दि होगा और उसीका संक्षेप कहीं विष्णु और कहीं नन्दि किया गया है ।