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लोकविभाग और तिलोयपण्णत्ति
मुनियों के लिए उसका व्याख्यान किया और फिर उनके बाद उन सूत्रोंका अध्ययन करके यतिवृषभने चूर्णि-सूत्र रचे । इससे यह स्पष्ट समझमें आता है कि नागहस्ति और आर्यमंक्षु गुणधरके साक्षात् शिष्य थे, और यतिवृषभने उन्हींके निकट अध्ययन किया था। अतएव जिस द्वितीयं कषायप्राभूत सिद्धान्तको पद्मनन्दिने प्राप्त किया उसके कर्ता गुणधर यतिवृषभके समकालीन अथवा २०२५ वर्ष ही पहले हुए थे और ऐसी दशामें पद्मनन्दि यतिवृषभके समसामयिक बल्कि कुछ पीछेके ही होंगे । क्योंकि उन्हें दोनों सिद्धान्तोंका ज्ञान गुरुपरिपाटीसे प्राप्त हुआ था। अर्थात् एक दो गुरु उनसे पहलेके और मानने होंगे।
जयधवला टीकाके मंगलाचरणमें लिखा है कि वे आर्यमंक्षु नागहस्तिके सहित मुझे वर दें जिन्होंने गुणधरके मुखसे निकली हुई गाथाओंका सारा अर्थ अवधारित किया, और वे वृत्तिसूत्रकर्त्ता यतिवृषभ भी मुझे वर दें जो आर्य मंक्षुके शिष्य और नागहस्तिके अन्तेवासी थे । इससे भी मालूम होता है कि गुणधरआर्यमंक्षु-नागहस्ति-यतिवृषभका साक्षात् गुरु-शिष्य सम्बन्ध था, इसलिए गुणधरका मूल सिद्धान्त कषायप्राभूत भी जो पद्मनन्दि मुनिको प्राप्त हुआ यतिवृषभसे २०-२५ वर्ष ही पहलेका समझना चाहिए । गरज यह कि इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके अनुसार पद्मनन्दिका समय यतिवृषभसे बहुत पहले नहीं जा सकता । अब यह बात दूसरी है कि इन्द्रनन्दिने जो इतिहास दिया है, वही गलत हो और या ये पद्मनन्दि कन्द१ अथ गुणधरमुनिनाथः सकषायप्राभृतान्वयं ( ख्यं ? ) तत् प्रायो-दोषप्राभृतकापरसंज्ञां साम्प्रतिकशक्तिमपेक्ष्य ।। १५२ व्यधिकाशीत्या युक्तं शतं च मूलसूत्रगाथानाम् । विवरणगाथानां च व्यधिकं पञ्चाशतमकार्षीत् ।। १५३ एवं गाथासूत्राणि पंचदशमहाधिकाराणि । प्रविरच्य ( भज्य ) व्याचख्यौ स नागहस्त्यार्यमंक्षुभ्याम् ॥ १५४ २-देखो श्रुतावतारके १५५-५६ नम्बरके पद्य जो ऊपर उद्धृत हो चुके है ३-गुणहर-वयण-विणिग्गिय-गाहाणत्थोवहारिओ सब्वो।
जेणज्जमखुणा सो स-नागहत्थी वरं देऊ ।। ७ जो अजमखुसीसो अंतेवासी वि णागहत्थिस्स । सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो मे वरं देऊ ॥ ८