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वनवासी और चैत्यवासी सम्प्रदाय
और वे उसे छोड़कर अन्य धर्म ग्रहण करनेकी अपेक्षा उसको ही संस्कृत या मार्जित करना अच्छा ससझते हैं और इस तरह उनका वह संस्कार किया हुआ धर्म एक नये पंथमें परिणत हो जाता है। ___ इस तरह अनेक कारणोंसे विविध पन्थों और सम्प्रदायोंकी उत्पत्ति हुआ करती है और इस तरह यह धर्मोंकी 'बेल' निरन्तर बढ़ती और फलती फूलती रहती है। __बहुतसे पन्थ क्षणजन्मा भी होते हैं । उत्पन्न हुए, कुछ बढ़े, और फूलनेफलनेके पहले ही मुरझाकर नष्ट हो गये । ऐसे पन्थों के नाम तक लोग भूल जाते हैं । किसी किसी प्राचीन पुस्तकके पत्र अवश्य ही उनकी स्मृति बनाये रखते हैं । न जाने ऐसे कितने सम्प्रदाय अबतक इस पृथ्वीपर जन्म लेकर नामशेष हो चुके हैं ।
जैनधर्मके सम्प्रदाय और पन्थ संसारमें साम्य, अहिंसा, मैत्रीभाव और अनेकान्त जैसे समन्वयकारी सिद्धान्तके परम प्रचारक जैनधर्ममें भी अब तक अनेक सम्प्रदाय और पन्थोंकी सृष्टि हो चुकी है, जिनमेंसे बहुत से सम्प्रदायोंका अस्तित्व तो बना हुआ है और बहुत-से कालके गालमें विलीन हो चुके हैं ।
जैनधर्मके दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय दोनोंकी परम्परागत अनुश्रुतियों के अनुसार विक्रमकी दूसरी शताब्दिके प्रारंभमें अलग हुए थे परन्तु हमारा अनुमान है कि श्रमण भगवान् महावीरके निर्वाणके बाद ही, उनके असाधारण व्यक्तित्वके गत होते ही, इनके अंकुरारोपण हो गये होंगे और आगे चलकर उन्होंने पल्लवित पुष्पित होते होते अपने पृथक् अस्तित्वको घोषित किया होगा। ___ इन सम्प्रदायोंमें भी अनेक शाखायें प्रशाखायें हुई, परन्तु यहाँ उनके उल्लेखकी आवश्यकता नहीं मालूम होती । हम इस लेख में केवल ऐसी दो शाखाओंकी चर्चा करना चाहते हैं जो दोनों ही सम्प्रदायों में बहुत समयसे चली आ रही हैं और जिनका हम ' वनवासी' और ' मठवासी' या 'चैत्यवासी' नामोंसे उल्लेख करेंगे।
जती और भट्टारक, संवेगी और नग्न मुनि श्वेताम्बरोंमें इस समय जो जती या श्रीपूज्य कहलाते हैं वे मठवासी या चैत्यवासी शाखाके अवशेष हैं और जो ' संवेगी' मुनि कहलाते हैं वे वनवासी शाखाके पुरस्कर्ता हैं । संवेगी अपनेको सुविहित मार्ग या विधि-मार्गके अनुयायी कहते हैं ।