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महाकवि पुष्पदन्त
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विचार' लेखेमें बतलाया कि कारंजाकी प्रतिमें उक्त पाठ इस तरह दिया हुआ है
पुष्फयंतकइणा धुयपंकें, जइ अहिमाणमेरुणामकें । कयउ कव्वु भत्तिए परमत्थे, जिणपयपंकयमउलियहत्थें ।
कोहणसंवच्छरे आसाढए, दहमइ दिवहे चंदरुइरूढए ।। अर्थात् क्रोधन संवत्सरकी असाढ़ सुदी १० को जिन भगवानके चरण-कमलों के प्रति हाथ जोड़े हुए अभिमानमेरु, धूतपंक ( धुल गये हैं पाप जिसके ), और परमार्थी पुष्पदन्त कविने भक्तिपूर्वक यह काव्य बनाया। __ यहाँ बम्बईके सरस्वती-भवनमें जो प्रति ( १९३ क) है, उसमें भी यही पाठ है और हमारा विश्वास है कि अन्य प्रतियोंमें भी यही पाठ मिलेगा। । ऐसा मालूम होता है कि पूनेवाली प्रतिके अर्द्धदग्ध लेखकको उक्त स्थानमें सिर्फ मिती लिखी देखकर संवत्-संख्या देनेकी जरूरत महसूस हुई और उसकी पूर्ति उसने अपनी विलक्षण बुद्धिसे स्वयं कर डाली !
यहाँ यह बात नोट करने लायक है कि कविने सिद्धार्थ संवत्सरमें अपना ग्रन्थ प्रारम्भ किया और क्रोधन संवत्सरमें समाप्त। न वहाँ शक संवत् दिया और न यहाँ ।
तीसरी शंका लगभग पन्द्रह वर्ष पहले पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारको शंका हुई थी कि पुष्पदन्त प्राचीन नहीं है। उन्होंने इस विषयमें एक लेख भी लिखा था और उसमें नीचे लिखी प्रशस्तिके आधारपर ' जसहरचरिउ' की रचनाका समय वि० सं० १३६५ बतलाया था।
कि उ उवरोहें जस्स कइयइ एउ भवंतर । तहो भव्वहु णामु पायडमि पयडउ धर ।। २९ ॥ चिरु पडणे छंगेसाहु साहु, तहो सुउ खेला गुणवंतु साहु । तहो तणुरुह वीसलु णाम साहु, वीरोसाहुणि यिहि सुलहु णाहु ।। सोयारु सुणणगुणगणसणाहु, एक्कइया चिंतइ चित्ति लाहु । हो पंडियठक्कुर कण्हपुत्त, उवयारियवल्लहपरममित्त ।। कइपुष्फयंति जसहरचरित्तु, किउ सुटु सद्दलक्खणविचित्तु ।
पेसहि तहिं राउलु कउलु अज्जु (?), जसहरविवाहु तह जणियचोज्जु । १ जैनसाहित्य संशोधक भाग २, अंक ३-४ । २ देखो, जैनजगत् ( १ अक्टूबर सन् १९२६ ) में ' महाकवि पुष्पदन्तका समय '।