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महाकवि
पुष्पदन्त
यँ और समय निर्णय करने में भी सहायता मिले |
समय- विचार
महापुराण की उत्थानिकामें कविने जिन सब ग्रंथों और ग्रन्थकर्ताओंका उल्लेख किया है', उनमें सबसे पिछले ग्रन्थ धवल और जयधवल हैं । पाठक जानते हैं कि वीरसेन स्वामी के शिष्य जिनसेनने अपने गुरुकी अधूरी छोड़ी हुई टीका जयधवलाको श० सं० ७५९ में राष्ट्रकूटनरेश अमोघवर्ष ( प्रथम ) के समय में समाप्त की थी । अतएव यह मिश्चित है कि पुष्पदन्त उक्त संवत् के बाद ही किसी समय हुए हैं, पहले नहीं ।
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रुद्रटका समय श्रीयुत काणे और दे के अनुसार ई० सन् ८०० – ८५० के अर्थात् श० सं० ७२२ और ७७२ के बीच है । इससे भी लगभग उपर्युक्त परिणाम ही निकलता है ।
अभी हाल ही डा० ए० एन० उपाध्येको अपभ्रंश भाषाका 'धम्मपरिक्खा नामका ग्रंथ मिला है जिसके कर्त्ता बुध ( पंडित ) हरिपेण हैं, जो धक्कड़वंशीय गोवर्द्धन के पुत्र और सिद्धसेन के शिष्य थे । वे मेवाड़ देशके चित्तौड़ के रहनेवाले
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१ - अकलेक, कपिल (सांख्यकार ), कणचर या कणाद ( वैशेषिकदर्शनकर्ता ), द्विज ( वेदपाठक ), सुगत (बुद्ध), पुरंदर ( चार्वाक ), दन्तिल, विशाख ( संगीतशास्त्रकर्ता ), भरत (नाट्यशास्त्रकार), पतंजलि, भारवि, व्यास, कोहल (कुष्माण्ड कावे), चतुर्मुख, स्वयंभु श्रीह ( हवर्द्धन), द्रोण, ईशान, वाण, धवल-जयधवल-सिद्धान्त, रुद्रट, और यशश्चिह्न, इतनोंका उल्लेख किया गया है । इनमेंसे अकलंक, चतुर्मुख और स्वयंभु जैन हैं । अकलंक देव, जयधवलाकार जिनसेनसे पहले हुए है । चतुर्मुख और स्वयंभुका ठीक समय अभी तक निश्चित नहीं हुआ परन्तु स्वयंभु अपने पउमचरियमें आचार्य रविषेणका उल्लेख करते हैं जिन्होंने वि० सं० ७३३ में पद्मपुराण लिखा था । इससे उनसे पीछे हैं। उन्होंने चतुर्मुखका भी स्मरण किया है । स्वयंभु भी अपभ्रंश भाषा के महाकवि थे । इनके पउमचरिउ ( पद्मचरित ) और अरिट्टनेमिचरिउ ( हरिवंश पुराण ) उपलब्ध हैं । उनका स्वयंभु छन्द नामका एक छन्दशास्त्र भी है । ' पंचमिचरिय ' नामका ग्रन्थ मी उनका बनाया हुआ है, जो अभी तक कहीं प्राप्त नहीं हुआ है । उनका कोई अपभ्रंश भाषाका व्याकरण भी था । ये स्वयंभु यापनीय संघके अनुयायी थे, ऐसा महापुराण - टिप्पणसे मालूम होता है ।
२ उ बुज्झिउ आयमसद्दधामु, सिद्धंत धवलु जयधवलु णाम ।