________________
२७६
जैनसाहित्य और इतिहास
इसके सिवाय प्राकृत पउमचरियकी रचना जितनी सुन्दर, स्वाभाविक और आडम्बररहित है, उतनी पद्मचरितकी नहीं है । जहाँ जहाँ वह शुद्ध अनुवाद है, वहाँ तो खैर ठीक है, परन्तु जहाँ पल्लवित किया गया है वहाँ अनावश्यक रूपसे बोझिल हो गया है। उदाहरणके लिए अंजना और पवनंजयके समागमको ले लीजिए । प्राकृतमें केवल चार पाँच आर्या छन्दोंमें ही इस प्रसंगको सुन्दर ढंगसे कह दिया गया है, परन्तु संस्कृतमें बाईस पद्य लिखे गये हैं और बड़े विस्तारसे आलिंगन-पीडन, चुम्बन, दशनच्छद, नीवी-विमोचन, सीत्कार, आदि काम-कलायें चित्रित की गई हैं जो अश्लीलताकी सीमा तक पहुंच गई हैं ।
पउमचरियके रचना-कालमें सन्देह विमलसूरिने स्वयं पउमचरियकी रचनाका समय वीर नि० सं० ५३० ( वि०६०) दिया है; परन्तु कुछ विद्वानोंने इसमें सन्देह किया है । डा० हर्मन जैकोबी उसकी भाषा और रचना-शैलीपरसे अनुमान करते हैं कि वह ईसाकी चौथी पाँचवीं शताब्दिसे पहलेका नहीं हो सकता । डा. कीथ, डा० बुलनैर आदि भी उसे ईसाकी तीसरी शताब्दिके लगभगकी या उसके बादकी रचना मानते हैं । क्योंकि उसमें 'दीनार' शब्दका और ज्योतिषशास्त्रसम्बन्धी कुछ ग्रीक शब्दोंका उपयोग किया गया है । दी० ब० केशवराव ध्रुव तो उसे और भी अर्वाचीन कहते हैं । वे छन्दोंके क्रम-विकासके इतिहासके विशेषज्ञ माने जाते थे। इस ग्रन्थके प्रत्येक उद्देसके अन्तमें जो गाहिणी, शरभ आदि छन्दोंका उपयोग किया गया है, वह उनकी समझमें अर्वाचीन है । गीतिमें यमक और सर्गान्तमें 'विमल' शब्दका आना भी उनकी दृष्टिमें अर्वाचीनताका द्योतक है । परन्तु हमें इन दलीलोंमें कुछ अधिक सार नहीं दिखता । ये अधिकतर ऐसे अनुमान हैं जिनपर बहुत भरोसा नहीं रक्खा जा सकता, ये गलत भी हो सकते हैं और जब स्वयं ग्रन्थकती अपना समय दे रहा है, तब अविश्वास करनेका कोई कारण भी तो नहीं दीखता। इसके सिवाय डा० विंटरनीज़, डा० लायमन, आदि विद्वान् वीर नि० ५३०को ही पउमचरियकी रचनाका काल मानते हैं । न माननेका उनकी समझमें कोई कारण भी नहीं है।
१ एन्साइक्लोपेडिया आफ रिलीजन एण्ड एथिक्स भाग ७, पृ० ४३७ और माडर्न रिव्यू दिसम्बर सन् १९१४ । २ कीथका संस्कृत साहित्यका इतिहास । ३ इन्ट्रोडक्शन टू प्राकृत ।