________________
वादिचन्द्रसूरि
Pाता है कि विर अंकमे क्षत्रित किया हम
वादिचन्द्रसूरि अपने ज्ञानसूर्योदय नामक नाटकके कारण बहुत प्रसिद्ध हैं । कृष्णमिश्र यति नामक एक दण्डी परिव्राजकने बुन्देलखंडके चन्देलराजा कीर्तिवर्माके समयमें 'प्रबोधचन्द्रोदय' नामक नाटककी रचना की थी। कहा जाता है कि वि० सं० ११२२ में उक्त राजाके समक्ष यह नाटक खेला भी गया था। इसके तीसरे अंकमें क्षपणक ( दिगम्बर जैन मुनि ) नामक पात्रको बहुत ही निन्दित और घृणित रूपमें चित्रित किया है । वह देखने में राक्षस जैसा मालूम होता है, और श्रावकोंको उपदेश देता है कि तुम दूरसे चरण-वन्दना करो और यदि हम तुम्हारी स्त्रियोंके साथ अति प्रसंग करें, तो तुम्हे ईर्ष्या न करनी चाहिए । फिर एक कापालिनी उससे चिपट जाती है, जिसके आलिंगनको वह मोक्ष-सुख समझता है और महाभैरवके धर्ममें दीक्षित होकर कापालिनीकी जूठी शराब पीकर नाच करता है, आदि । शायद इसीका बदला चुकाने के लिए वादिचन्द्रने प्रबोधचन्द्रोदयके ही अनुकरणपर अपने नाटककी रचना की है। दोनोंकी एक ही भित्ति है और ढंग भी एक ही है। कहीं कहीं तो थोड़ेसे शब्दोंके हेरफेरसे बीसों श्लोक और गद्य वाक्य एक ही आशयके मिलते हैं। दोनोंके पात्र भी प्रायः एकसे ही नाम धारण करनेवाले हैं। ज्ञानसूर्योदयकी 'अष्टशती' प्रबोधचन्द्रोदयकी 'उपनिषत् ' है, काम, क्रोध, लोभ, दंभ, अहंकार, मन, विवेक आदि एक-से हैं । सूर्योदयकी 'दया' चन्द्रोदयकी 'श्रद्धा' है । वहाँ दया खोई गई है, यहाँ श्रद्धा लापता है । वहाँ अष्टशतीका पति 'प्रबोध' है और यहाँ उपनिषत्का पति 'पुरुष' है । ___ ज्ञानसूर्योदयके कर्त्ताने प्रबोधचन्द्रोदयके समान बौद्धोंका मजाक तो उड़ाया ही है, साथ ही श्वेताम्बर सम्प्रदायकी भी खबर ली है और क्षपणककी जगह सितपट यतिको खड़ा कर दिया है ! गुजरातमें शायद उस समय दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदायोंमें काफी विरोध था और उसीकी यह प्रतिध्वनि है ।