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जैनसाहित्य और इतिहास
७- श्वेताम्बराचार्य रत्नमण्डनगणिकृत सुकृतसागर नामक ग्रन्थके-'पेथड़ तीर्थयात्राद्वय-प्रबन्ध' में जो कुछ लिखा है उसका सारांश यह है कि " सुप्रसिद्ध दानी पेथड़शाह शत्रुजयकी यात्रा करके संघसहित गिरिनारमें पहुँचे । उनके पहले वहाँ दिगम्बर संघ आया हुआ था। उस संघका स्वामी पूर्ण ( चन्द्र ) नामका अग्रवालवंशी धनिक था । वह देहलीका रहनेवाला था। उसे 'अलाउद्दीनशाखीनमान्य' विशेषण दिया है जिससे मालूम होता है कि वह कोई राजमान्य पुरुष था । उसने कहा कि पर्वतपर पहले हमारा संघ चढ़ेगा; क्योंकि एक तो हम लोग पहले आये हैं और दूसर यह तीर्थ भी हमारा है। यदि यह तीर्थ तुम्हारा है, तो इसका सुबूत पेश करो । यदि भगवान नेमिनाथकी प्रतिमापर अंचलिका और कटि-सूत्र प्रकट हो जाय, तो हम इसे तुम्हारा तीर्थ मान लेंगे। भगवान् भव्य जनोंके दिये हुए आभरण सहन नहीं कर सकते, इसलिए इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह तीर्थ हमारा है । इसपर श्वेताम्बरीय पेथड़शाह बोले कि भगवान् आभरणादि सहन नहीं कर सकत, इसका कारण यह है कि उनकी कीर्ति बारह योजन तक फैली हुई है । आमके वृक्षपर तोरणकी
और लंकामें लहरोंको चाह नहीं होती । जिस तरह फलोधी ( मारवाड़ ) में प्रतिमाधिष्ठित देव आभूषणापहारक हैं, उसी तरह यहाँ भी हैं। यदि यह तीर्थ तुम्हारा है, तो शैवोंका भी हो सकता है, क्योंकि यह पर्वत लिंगाकार है और गिरि-वारि-धारक है । इस तरह वादविवाद हो रहा था कि कुछ वृद्धजनोंने आकर कहा, अभी तो इस झगड़े को छोड़ दो और यात्राको चलो । वहाँ इन्द्रमाला ( फूलमाल ) लेते समय इसका निर्णय हा जायगा। उस मालाको जो सबसे ज्यादा धन देकर ले सकेगा, यह तीर्थ उसीका सिद्ध हो जायगा । निदान दोनों संघ पर्वतपर गये और दोनोंने अभिषेक, पूजन, ध्वजारोपण, नृत्य, स्तुत्यादि कृत्य किये । इसके बाद जब इन्द्रमालाका समय आया तब श्वेताम्बर भगवानके दाहिने ओर और दिगम्बर बाई ओर बैठ गये। इसीसे निश्चय हो गया कि कौन हारेगा और कौन जीतेगा ! इन्द्रमालाकी बोली हाने लगी। एक दूसरेसे अधिक बढ़ते बढ़ते अन्तमें श्वेताम्बरोंने ५६ धड़ी (पंसेरी) सोना देकर माला लेनेका प्रस्ताव किया । दिगम्बरी अभीतक तो बराबर बढ़े जाते थे; परन्तु अब वे घबराये और सलाह करने लगे । उन्होंने अपने संघपतिसे कहा