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जैनसाहित्य और इतिहास
धीरे चैत्यवासकी जड़ जमी और अन्तमें मुनिमार्ग शिथिल होकर चैत्यवासी या मठवासी भट्टारकों और महन्तोंके रूपमें परिणत हो गया । साधुओंकी इस शिथिलताने चैत्यों और मन्दिरोंका प्रभाव बहुत बढ़ा दिया और जैनधर्मकी प्रभाव नाका सबसे बड़ा द्वार यही बन गया । भगवान समन्तभद्रके प्रभावनाङ्गके इस श्रेष्ठ लक्षणको लोग एक तरहसे भूल ही गये कि “अज्ञानांधकारको जैसे बने, वैसे हटाकर जैनशासनके माहात्म्यको प्रकट करना ही सच्ची प्रभावना है।” इसके बदले में यह उपदेश दिया जाने लगा कि “ विम्बाफलके बराबर मन्दिर बनाकर उसमें जौके दानेके बराबर भी प्रतिमा स्थापन करनेवाले गृहस्थके पुण्यका वर्णन नहीं हो सकता !” इसका फल यह हुआ कि मन्दिरों और प्रतिमाओंके बनवाने और स्थापन करानेका लोगोंपर एक प्रकारका खब्त सवार हो गया । लोग आँख बन्द करके इसी कामकी ओर झुक पड़े । इतिहास साक्षी है कि पिछले ५००-६०० वर्षोंमें जैनसम्प्रदायके अनुयायियोंने अपने धर्मके नामसे यदि कुछ किया है तो वह मन्दिरों और प्रतिमाओंका निर्माण ही किया है ।
५.- ये चैत्यवासी और मठवासी साधु दोनों ही सम्प्रदायोंमें हो गये थे; बल्कि श्वेताम्बर सम्प्रदायमें तो यह शिथिलता शायद और भी पहले प्रविष्ट हो गई थी। इन साधुजनोंके उपदेशसे तीर्थों में भी मन्दिर बनाये जाने लगे और नये नये तीर्थ
अतिशयक्षेत्र आदि नामोंसे स्थापित होने लगे । इन मन्दिरों और तीर्थों के व्ययनिर्वाहके लिए धन-संग्रह किया जाने लगा, धन-संग्रह करनेकी नई नई तरकीबें निकाली गई और प्रबन्धके लिए कोठियाँ खोल दी गई । बहुत-सी कोठयोंकी मालिकी भी धीरे धीरे भट्टारकों और महन्तोंके अधिकारमें आ गई और अन्तमें उसने एक प्रकारसे धार्मिक दूकानदारीका रूप धारण कर लिया । यदि इस बीचमें दिगम्बर सम्प्रदायमें तेरह पंथका और श्वेताम्बर सम्प्रदायमें विधिमार्ग या संवेगी
१-अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् ।
जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ।। २-बिम्बाफलोन्नतियवोन्नतिमेव भक्त्या
ये कारयन्ति जिनसद्मजिनाकृति वा। पुण्यं तदीयीमह वागपि नैव शक्ता स्तोतुं परस्य किमु कारयितुईयस्य ॥