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हमारे तीर्थक्षेत्र
सामग्री होगी, जो अभी तक अप्रकाशित पड़ी है और जिसकी ओर हमारा ध्यान नहीं जा सका है ।
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तीर्थोका साहित्य
दिगम्बर जैन- सम्प्रदाय में इस समय केवल दो ही छोटी-छोटी पुस्तकें उपलब्ध हैं जो तीर्थक्षेत्रों के सम्बन्ध में यत्किंचित्, सो भी अस्पष्ट और अधूरी, सूचनायें देती हैं और उन्हींको मुख्य मानकर यह लेख लिखा गया है । पहली है 'प्राकृत निर्वाण -काण्ड ' और दूसरी ' संस्कृत निर्वाण-भक्ति ' । पहली में केवल १९ और दूसरी में ३२ पद्य हैं ।
दूसरी पुस्तक श्रीप्रभाचंद्राचार्य के क्रिया-कलाप में संगृहीत है और उसपर उनकी साधारण सी टीका भी है । उनके कथनानुसार इसके कर्त्ता पूज्यपाद स्वामी हैं यद्यपि इसके लिए उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिया है' । कुन्दकुन्दकी जितनी रचनायें उपलब्ध हैं वे सब प्राकृत में हैं तथा पूज्यपाद की संस्कृत में और चूँकि दोनों बहुमान्य आचार्य हैं शायद इसीलिए तमाम भक्तियोंका दोनों में बँटवारा कर दिया गया है 1
पं० आशाधरका भी एक क्रिया-कलाप नामका ग्रन्थ है और उसमें उन्होंने भी पूर्वोक्त क्रिया-कलापकी अधिकांश भक्तियाँ संगृहीत की हैं परन्तु उन्होंने उनके कर्त्ताओंके सम्बन्धमें इस तरह की कोई बात नहीं लिखी है ।
श्रीप्रभाचन्द्रने अपने क्रिया-कलाप में प्राकृत मिर्वाण-काण्डका संग्रह नहीं किया है परन्तु पं० आशाधरने उसके ( निर्वाणकाण्डके ) प्रारम्भकी पाँच गाथायें ही दी हैं । शेष गाथायें क्यों छोड़ दी गई, यह समझ में नहीं आया । बम्बईके ' ऐलक पन्नालाल-सरस्वती-भवन ' की प्रति देखकर यह बात लिखी जा रही है जो बहुत अशुद्ध है । सम्भव है लेखकके प्रमादसे शेष गाथायें छूट गई हों ।
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निर्वाण-भक्ति और निर्वाण-काण्ड इन दोनोंके ही ठीक समय निर्णयकी जरूरत है । अन्य ग्रन्थों में यदि कहीं इनके उद्धरण मिल जायँ तो इसपर कुछ प्रकाश पड़ सकता है । फिर भी यह निश्चित है कि ये दोनों पुस्तकें पं० आशाधरजीके
१ सिद्धभक्तिकी टीकाके अन्तमें श्रीप्रभाचन्द्रने इस प्रकार लिखा है—“ संस्कृता: सर्वा भक्तयः पादपूज्यस्वामिकृताः प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृताः । " अर्थात् संस्कृतकी सारी भक्तियाँ पूज्यपादस्वामिकृत हैं और प्राकृतकी कुन्दकुन्दाचार्यकृत ।