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दो शब्द
भारतीय इतिहासका अभीतक रा पूरा अनुसन्धान नहीं हुआ है । प्राचीन वेदकालसे लगाकर प्रायः आधुनिक कालतकके राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और साहित्यिक इतिहासके अनेक भाग अभी तक खंडित दशामें और अन्धकारमें ही पड़े हुए हैं । जैन संस्कृति के इतिहासकी तो और भी बड़ी दुर्दशा है । इसका तो प्रमुख साहित्य भी अभीतक पूरा पूरा प्रकाशमें नहीं आया है। यहाँ अनुसन्धानकोंकी कठिनाई इस कारण और बढ़ जाती है कि स्वयं जैन समाजके भीतर एक ऐसा दल विद्यमान है जो प्रकाशन और समालोचनका विरोधी है। अतः यह कोई आश्चर्य नहीं जो इस क्षेत्रमें कार्य करनेवालोंकी संख्या अत्यल्प रही हो।
जिन थोड़ेसे व्यक्तियोंन कठिनाइयोंकी परवाह न करके जैन साहित्य और इतिहासको प्रकाशमें लानेका प्रयत्न किया है उनमें श्रीयुक्त पं० नाथूरामजी प्रेमीका नाम अग्रगण्य है । पंडितजीकी साहित्य-सेवायें जैनत्व तक ही सीमित नहीं रही, हिन्दी साहित्यके उद्धार और निर्माणमें भी उनका कार्य अद्वितीय और चिरस्मरणीय है। किन्तु जैन साहित्यमें तो उन्होंने एक नया युग ही स्थापित कर दिया है । आज जो जैन साहित्यके प्रकाशन और अनुसन्धानका कार्य चल रहा है उसपर प्रेमीजीके प्रयत्नोंकी प्रत्यक्ष या परोक्ष अमिट छाप लगी हुई है। नवीन खोजकोंके लिए प्रेमीजीके अनुसन्धान पथप्रदर्शकका काम देते हैं।
प्रेमीजीके खोजपूर्ण और अत्यन्त महत्त्वशाली लेख प्राय: जैन पत्रिकाओं और स्फुट पुस्तिकाओं तथा ग्रन्थोंकी भूमिकाओंमें समाविष्ट होनेसे सबके लिए सदा सुलभ नहीं है
और कुछ तो अप्राप्य ही हो गये हैं। बहुत कालसे मेरा प्रेमीजीसे आग्रह था कि वे अपने इन लेखोंको एक जगह संग्रह कर दें तो नये खोजकोंको बड़ा सुभीता हो जाय । किन्तु वृद्धावस्था, अस्वास्थ्य और अन्य चिन्ताओंके कारण वे इस ओर बहुत समय तक प्रवृत्त न हो सके । अत्यन्त हर्षका विषय है कि अन्ततः प्रेमीजीने इस कार्यकी आव