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शाकटायन और उनका शब्दानुशासन
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क्षितानि पदानि शाकटायनसूत्राणि तेषां श्रवणं आकर्णनं ।” इससे यह स्पष्ट होता है कि पंजिकाकार शुभचन्द्र पाल्यकीर्तिको शाकटायन-सूत्रोंका का मानते थे ।
शाकटायन प्रक्रिया-संग्रहके मंगलांचरणमें जिनेश्वरको पाल्यकीर्ति और मुनीन्द्र विशेषण दिये हैं, जो श्लिष्ट हैं। उसके द्वारा एक अर्थमें जिनेश्वरको और दूसरे अर्थमें प्रसिद्ध वैयाकरण पाल्यकीर्तिको नमस्कार किया है' । शाकटायनकी प्रक्रिया बनाते समय यह सम्भव नहीं कि अभयचन्द्र उसके मूल कर्तीको छोड़कर अन्य किसी वैयाकरणको नमस्कार करते । इससे भी शाकटायनका वास्तव नाम पाल्यकीर्ति निश्चित होता है।
शाकटायन या शब्दानुशासन स्वयं ग्रन्थकर्त्ताने और टीकाकारोंने भी इस व्याकरणका नाम 'शब्दानुशासन' बतलाया है । शाकटायन नाम तो पीछे प्रसिद्ध हुआ जान पड़ता है। जिस तरह कवियोंमें कालिदासकी अधिक प्रसिद्धि होनेके कारण पीछेके अनेक कवि कलिदास कहलाने लगे, उसी तरह बहुत बड़े वैयाकरण होनेके कारण लोग पाल्यकीर्तिको भी शाकटायनाचार्य कहने लगे और उनके व्याकरणको शाकटायन ।
वैदिक शाकटायन प्राचीन है जब सन् १८९३ में मि० गुस्तव आपटने 'शाकटायन प्रक्रियासंग्रह' प्रकाशित किया, तब उन्होंने उसकी भूमिकामें बतलाया कि ये वही शाकटायन हैं जिनका उल्लेख पाणिनिने किया है और इसके प्रमाणमें दो चार सूत्र ऐसे भी पेश कर दिये जो वैदिक शाकटायनके उन सूत्रोंसे मिलते जुलते थे जिनकी चर्चा पाणिनिने की है और अन्तमें यह भी कहा कि ये शाकटायन जैन थे। परन्तु जब उनके कथनपर गहराईसे विचार किया तब वह निस्सार साबित हुआ और अब तो उसपर कोई भी विश्वास नहीं करता है ।
शाकटाय यापनीय थे शाकटायन या पाल्यकीर्ति किस सम्प्रदायके थे पहले इस विषयमें काफी मत-भेद रहा । दिगम्बर सम्प्रदायके लोग पहले उन्हें अपने सम्प्रदायका मानते रहे, क्योंकि उनके यहाँ उनके व्याकरणका काफी प्रचार था और मुनि दयापाल आदि
१ मुनीन्द्रमभिन्द्याहं पाल्यकीर्ति जिनेश्वरम् । मन्दबुद्धयनुरोधेन प्रक्रियासंग्रहं ब्रुवे ।।