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जैनसाहित्य और इतिहास
थे । इसके समयके तीन दान-पत्र मिले हैं । एक मांडूमें वि० सं० १२६७ का, दूसरा भरोचमें १२७० का और तीसरा मान्धातमें १२७२ का। इसने गुजरातनरेश जयसिंहको हराया था।
४ देवपाल-अर्जुनवर्माके निस्सन्तान मरने पर यह गद्दीपर बैठा। इसकी उपाधि साहसमल्ल थी। इसके समयके सं० १२७५, १२८६ और १२८९ के तीन शिलालेख और १२८२ का एक दान-पत्र मिला है। इसीके राज्य कालमें वि० सं० १२८५ में जिनयज्ञ-कल्पकी रचना हुई थी। __ ५ जैतुगिदेव ( जयसिंह द्वितीय)-यह देवपालका पुत्र था । इसके समयके १३१२ और १३१४ के दो शिलालेख मिले हैं । पं० आशाधरने इसीके राज्य कालमें १२९२ में त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र, १२९६ में सागारधर्मामृत-टीका ओर १३०० में अनगारधर्मामृत-टीका लिखी ।
ग्रन्थ-रचना वि० सं० १३०० तक पं० आशाधरजीने जितने ग्रन्थोंकी रचना की, उनका विवरण नीचे दिया जाता है
१ प्रमेयरत्नाकर-इसे स्याद्वाद विद्याका निर्मल प्रसाद बतलाया है। यह गद्य ग्रंथ है और बीच बीचमें इसमें सुन्दर पद्य भी प्रयुक्त हुए हैं । अभीतक यह कहीं प्राप्त नहीं हुआ है।
२ भरतेश्वराभ्युदय-यह सिद्धयङ्क है, अर्थात् इसके प्रत्येक सर्गके अन्तिम वृत्तमें 'सिद्धि' शब्द आया है। यह स्वोपज्ञटीकासहित है। इसमें प्रथम तीर्थकरके पुत्र भरतके अभ्युदयका वर्णन होगा । संभवतः महाकाव्य है । यह भी अप्राप्य है।
३ शानदीपिका-यह धर्मामृत ( सागार-अनगार ) की स्वोपज्ञ पंजिका टीका है । कोल्हापुरके जैन मठमें इसकी एक कनड़ी प्रति थी, जिसका उपयोग स्व. पं. कल्लापा भरमाप्पा निटवेने सागारधर्मामृतकी मराठी टीकामें किया था
और उसमें टिप्पणीके तौरपर उसका अधिकांश छपा दिया था। उसीके आधारसे माणिकचन्द-ग्रन्थमालाद्वारा प्रकाशित सागारधर्मामृत सटीकमें भी उसकी अधिकांश टिप्पणियाँ दे दी गई थीं। उसके बाद मालूम हुआ कि उक्त कनड़ी प्रति जलकर नष्ट हो गई ! अन्यत्र किसी भण्डारमें अभीतक इस पंजिकाका पता नहीं लगा।