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जैनसाहित्य और इतिहास
जैनेन्द्रोक्त अन्य आचार्य पाणिनि आदि वैयाकरणोंने जिस तरह अपनेसे पहलेके वैयाकरणोंके नामोंका उल्लेख किया है, उसी तरह जैनेन्द्रसूत्रोंमें भी नीचे लिखे पूर्वाचार्योंका उल्लेख मिलता है
१ राद् भूतबलेः ।३-४-८३, २-गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम् । १-४-३४ ३-कृवृषिमृजां यशोभद्रस्य । २-१-९९, ४-रात्रैः कृतिप्रभाचन्द्रस्य । ४-३-१८० ५-वेत्तेः सिद्धसेनस्य । ५-१-७,६-चतुष्टयं समन्तभद्रस्य । ५-४-१४०।
जहाँतक हम जानते हैं इन छहों आचार्योंमेंसे किसीका भी कोई व्याकरण ग्रन्थ नहीं है । परन्तु जान पड़ता है इनके अन्य ग्रन्थों में कुछ भिन्न तरहके शब्दप्रयोग किये गये होंगे और उन्हींको व्याकरण-सिद्ध करनेके लिए ये सब सूत्र रच गये हैं । शाकटायनने भी इसीका अनुकरण करके तीन आचार्योंके मत दिये हैं । पूर्वोक्त आचार्यों से सिद्धसेन और समन्तभद्र के ग्रन्थ उपलब्ध हैं। उनके शब्दप्रयोगोंकी बारीकीके साथ जाँच करनेसे इनकी सत्यता प्रमाणित हो सकती है ।
१ भूतवलि । भूतबलिका ठीक ठीक समय निश्चित करना कठिन है । इतना ही कहा जा सकता है कि वे वीर नि० सं० ६८३ के बाद हुए हैं।'
२ स्वामी समन्तभद्र और ३ सिद्धसेनका समय भी अभी तक एक तरहसे अनिश्चित-सा ही है।
४ श्रीदत्त । आचार्य विद्यानन्दने अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें श्रीदत्तके 'जल्पनिर्णय' नामक ग्रन्थका उल्लेख किया है जिससे मालूम होता है कि ये ६३ वादियोंके जीतनेवाले बड़े भारी तार्किक थे। आदिपुराणके कर्ता जिनसेनसूरिने भी इनका स्मरण किया है और इन्हें वादि-गजोंका प्रभेदन करनेके लिए सिंह बतलाया है । वीरनिर्वाण संवत् ६८३ के बाद जो चार आरातीय मुनि हुए हैं, उनमें भी एकका नाम श्रीदत्त है। उनका समय वीरनिर्वाण सं० ७०० (शक सं० ९५ वि० सं० २३०) के लगभग होता है। यह भी संभव है कि आरातीय ___ १-२ इसके लिए पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारका — स्वामी समन्तभद्र' और प्रो० हीरालालजीकी धवलाकी भूमिका ' दोखए । ३ द्विप्रकारं जगौ जल्पं तत्त्व-प्रातिभगोचरम् । त्रिषष्टेर्वा दिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ।। ४ श्रीदत्ताय नमस्तस्मै तपः श्रीदीप्तमूर्तये । कण्टीरवायितं येन प्रवादीभप्रभेदने ।।४५