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जैनसाहित्य और इतिहास
तृतीयके समय हुए हैं और इस राजाने शक ७१६ से ७३६ (वि० ८५१८७१) तक राज्य किया है । यह ग्रन्थकर्ता जैनेन्द्रका उल्लेख करता है' । अर्थात् वि० सं० ८५० के लगभग जैनेन्द्र प्रख्यात व्याकरणोंमें गिना जाने लगा था। अतएव वह इस समयसे भी पहलेका बना हुआ होना चाहिए ।
२ " सर्वादिः सर्वनाम " ( १-१-३५) सूत्र जैनेन्द्रका है, और उसका उल्लेख राजवार्तिक अध्याय १ सूत्र ११ की व्याख्यामें किया गया है । अतएव जैनेन्द्र व्याकरण राजवार्तिकसे पहलेका बना हुआ है । राजवार्तिकके कर्ता अकलंकदेवका समय पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्यने वि० सं० ७७७ से लेकर ८३७ तक सिद्ध किया है । तब जैनेन्द्र व्याकरण वि० सं० ८०० से पहले बन चुका था । अब यह देखना चाहिए कि कितने पहले।
३–मर्करा ( कुर्ग ) में एक प्राचीन ताम्र-पत्र शक संवत् ३८८ ( वि० सं० ५२३ ) का लिखा हुआ मिला है । उस समय गंगवंशीय राजा अविनीत राज्य करता था। अविनीत राजाका नाम भी उक्त दान-पत्रमें है । उसमें कुन्दकुन्दान्वय और देशीयगणके मुनियोंकी परम्परा इस प्रकार दी हुई है-गुणचन्द्रअभयनन्दि-शीलभद्र-जनानन्दि-गुणनन्दि और चन्द्रनन्दि । पूर्वोक्त अविनति राजाके बाद उसका पुत्र दुर्विनीत राजा हुआ है । 'हिस्ट्री आफ कनड़ी लिटरेचर'
और 'कर्नाटक कविचरित्र' (कनड़ी) के अनुसार इस राजाका राज्यकाल ई० सन् ४८२ से ५१२ (वि० ५३९-६९) तक है । यह कनड़ी भाषाका कवि था । भारविके किरातार्जुनीय काव्यके १५ साँकी कनड़ी टीका इसने लिखी थी। कर्नाटक-कविचरित्रके कर्ता लिखते हैं कि यह राजा पूज्यपाद यतीन्द्रका शिष्य था। अतः पूज्यपादको हमें विक्रमकी छठी शताब्दिके प्रारंभका ग्रन्थकर्ता मानना चाहिए । मर्कराके उक्त ताम्रपत्रसे भी यह बात पुष्ट होती है । वि० संवत् ५२३ में अविनीत राजा था। उसके १६ वर्ष बाद वि० सं० ५३९ में उसके पुत्र दुर्विनीतका राजा होना सर्वथा संभव है और जिन चन्द्रनन्दिके समय उक्त ताम्र-पट लिखा गया है, सम्भवतः १ व्याडिप्रणीतमथ वाररुचं सचान्द्र जैनेन्द्रलक्षणगतं विविधं तथान्यत् । लिङ्गस्य लक्ष्म ही समस्य विशेषयुक्तमुक्तं मया परिमितं त्रिदशा इहार्याः ॥३१ २ इंडियन एण्टिक्वेरी जिल्द १, पृष्ठ ३६३-६५ और एपिग्राफिका कर्नाटिका, जिल्द १ का पहला लेख । ३ आर० नरसिंहाचार्य एम० ए० कृत ।