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देवनन्दि और उनका जैनेन्द्र व्याकरण
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इस ग्रन्थके मंगलीचरणके पहले श्लोकमें पूज्यपाद, गुणनन्दि और सोमदेव ये विशेषण वीर भगवानको दिये हैं और दूसरे श्लोकमें कहा है कि यह टीका मूलसंघीय मेघचन्द्र के शिष्य नागचन्द्र ( भुजंगसुधाकर ) और उनके शिष्य हरिचन्द्र यतिके लिए बनाई जाती है ।
गुणनन्दिकी प्रशंसा चुरादि धातुपाठके अन्तमें भी एक पद्यमें की गई है, जिसका अन्तिम चरण यह है-" शब्दब्रह्मा स जीयाद्गुणनिधिगुणनंदिवती. शस्सुसौख्यः । ” इसमें शब्दब्रह्मा विशेषण देकर गुणनन्दिको शब्दार्णव-व्याकरणका कर्ता ही प्रकट किया गया है ।
ये मेघचन्द्र आचारसारके कर्ता वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीके गुरु ही मालूम होते हैं। इन्हें सिद्धान्तज्ञतामें जिनसेन और वीरसेनके सदृश, न्यायमें अकलंकके समान और व्याकरणमें साक्षात् पूज्यपादसदृश बतलाया है। श्रवणबेल्गोलके नं० ४७, ५० और ५२ नम्बरके शिलालेखोंसे मालूम होता है कि इनका स्वर्गवास शक संवत् १०३७ ( वि० सं० ११७२) में और उनके शुभचन्द्रदेव नामक शिष्यका स्वर्गवास शक संवत् १०६८ ( वि० सं० १२०३) में हुआ था। तथा उनके दूसरे शिष्य प्रभाचंद्रदेवने शक सं० १०४१ (वि. सं० ११७६ ) में एक महापूजाप्रतिष्ठा कराई थी। जब सोमदेवने शब्दार्णवचन्द्रिका मेघचन्द्र के प्रशिष्य हरिचन्द्रके लिए शक सं० ११२७ (वि० सं० १२६२ ) में बनाई थी, तब मेघचन्द्रका समय वि० सं० ११७२ के लगभग माना जा सकता है।
मेश्वरपरमभट्टारकपश्चिमचक्रवर्तिश्रीवीरभोजदेवविजयराज्ये शकवकसहस्रकशतसप्तविंशति ११२७ तमक्रोधनसंवत्सरे स्वस्ति समस्तानवद्यविद्याचक्रचक्रवर्तिश्रीपूज्यपादानुरक्तचेतसा श्रीमत्सोमदेवमुनीश्वरेण विरचितेयं शब्दार्णवचन्द्रिका नाम वृत्तिरिति । इति श्रीपूज्यपादकृतजैनेन्द्रमहाव्याकरणं सम्पूर्णम् । "
१-श्रीपूज्यपादममलं गुणनन्दिदेवं सोमामरव्रतिपपूजितपादयुग्मम् । सिद्धं समुन्नतपदं वृषभं जिनेन्द्रं सच्छब्द लक्षणमहं विनमामि वीरम् ॥ १ ॥ श्रीमूलसंघजलजप्रतिबोधभानोर्मेघेन्दुदीक्षितभुजंगसुधाकरस्य । राद्वान्ततोयनिधित्रद्धिकरस्य वत्तिं रेभे हरीदयतये वरदीक्षिताय ॥ २ ॥