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सोमदेवसूरिका नीतिवाक्यामृत
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या ' वाग' बन गया है। ___ श्रीसोमदेवसूरिने नीतिवाक्यामृतकी रचना कब और कहाँपर की थी, इस बातका विचार करते हुए हमारी दृष्टि उसकी संस्कृत टीकाके निम्नलिखित वाक्योंपर जाती है।
" अत्र तावदखिलभूपालमौलिलालितचरणयुगलेन रघुवंशावस्थायिपराक्रमपालितकस्य ( कृत्स्न ) कर्णकुब्जेन महाराजश्रीमहेन्द्रदेवेन पूर्वाचार्यकृतार्थशास्त्रदुरवबोधग्रन्थगौरवखिन्नमानसेन सुबोधललितलघुनीतिवाक्यामृतरचनासु प्रवर्तितः सकलपारिषदत्वान्नीतिग्रन्थस्य नानादर्शनप्रतिबद्धश्रोतृणां तत्तदभीष्टश्रीकण्ठाच्युतविरंच्यर्हता वाचनिकनमस्कृतिसूचनं तथा स्वगुरोः सोमदेवस्य च प्रणामपूर्वकं शास्त्रस्य तत्कर्तृत्वं ख्यापयितुं सकलसत्त्वकृताभयप्रदानं मुनिचन्द्राभिधानः क्षपणकव्रतधर्ता नीतिवाक्यामृतकर्ता निर्विघ्नसिद्धिकरं...श्लोकमेकं जगाद-" पृष्ठ २
इसका अभिप्राय यह है कि कान्यकुब्जनरेश्वर महाराजा महेन्द्रदेवने पूर्वाचार्यकृत अर्थशास्त्र ( कौटिलीय अर्थशास्त्र ?) की दुर्बोधता और गुरुतासे खिन्न होकर ग्रन्थकर्ताको इस सुबोध, सुन्दर और लघु नीतिवाक्यामृतकी रचना करने में प्रवृत्त किया। ___ कन्नौजके राजा महेन्द्रपालदेवका समय वि० संवत् ९६० से ९६४ तक निश्चित हुआ है । कर्पूरमंजरी और काव्य-मीमांसा आदिके कर्ता सुप्रसिद्ध कवि राजशेखर इन्हीं महेन्द्रपालदेवके उपाध्याय थे । परन्तु हम देखते हैं कि यशस्तिलक वि० संवत् १०१६ में समाप्त हुआ है और नीतिवाक्यामृत उससे भी पीछे बना है। क्योंकि नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिमें ग्रन्थकर्त्ताने अपनेको यशोधरमहाराजचरित या यशस्तिलक महाकाव्यका कर्ता प्रकट किया है और इससे प्रकट होता है कि उक्त प्रशस्ति लिखते समय वे यशस्तिलकको समाप्त क चुके थे । ऐसी अवस्था महेन्द्रपालदेवसे कमसे कम ५०-५१ वर्ष बाद नीति वाक्यामृतका रचना-काल ठहरता है । तब समझमें नहीं आता कि टीकाकारने सोमदेवको महेन्द्रपालदेवका समसामयिक कैसे ठहरा दिया । आश्चर्य नहीं जो उन्होंने किसी सुनाई किंवदन्तीके आधारसे पूर्वोक्त बात लिख दी हो ।
१ देखो नागरीप्रचारिणी पत्रिका ( नवीन संस्करण ), भाग २, अंक १ में स्वगीय पं० चन्द्रधर शर्मा गुलेरीका ' अवन्तिसुन्दरी' शीर्षक नोट ।