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रामायण
दौड़
न दृष्टि लोटावे, पैर आगे को बढ़ावे । भीरता दूर भगावे, प्रतिज्ञा पर रहे दृढ़ चाहे, खेल जान पर जावे ॥
दोहा (माता, कहे श्री सर्वत्र ने, अष्ट प्रवचन सार ।
इनको धारे बिन कोई, हुआ न भव से पार ॥ पाँच सुमति और तीन गुप्ती को, हरदम हृदय लाना है। कहीं नीरस सरस जो मिले आहार, सब सम प्रणाम से खाना है ।। कर्म जंग मे अड़कर के फिर, मरने से तहीं डरना है। इस गंदे जिस्म की खातिर, क्षत्रिय कुल दागी नहीं करना है ।।
दोड़ एक दिन सबने मरता, धर्म बिन और न शरणा।
भाव ये हृदय मे धरना, चक्री तीर्थकर गये छोड़,
यहाँ अमर किसी का घर ना ।। गाना नम्बर ४४ ( माता का स्कंधक कुमार को समझाना )
तर्ज-(निहालदे की) बासी भी खाना मेरे स्कंधक, जमी का सोवना । कठिन यह वृत्ति मेरे, स्कंधक सहने का नाही ।। कटुक वचन मेरे बेटा, जब बरसंगे बाण सम । बाईस परिषह मेरे बच्चे तू , सहने का नाहीं।।
चार महाव्रत धारणे होगे, भाव से । । जीवित ही मरना है बेटा धरणी की न्याई ।।