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________________ राम शित्रा और विघ्न पन्द्रहवां महा बुरा, होना पक्षान्ध फिर वंचित सब लाभो से, होकर नीच गति जा पाता है ॥ कहाता है। दोहा ( राम ) · २६६ उन्नत होने मे सदा, शक्ति ही प्रधान । शक्ति हीन नर को गिना, बिल्कुल पशु समान ॥ खोय || ग्यारह हैं शक्ति सभी, पुण्यवान् में होय । जिसमें न हो एक भी, वृथा जन्म रहा शक्तिहीन का दुनिया में, गौरव एक तुच्छ तमाशा है । घुल जाय जरा से पानी मे, जैसे कि बड़ा पताशा है || शक्तिहीन मनुष्य इस जग मे, सब की ठोकर खाते है । और न्याय न्याय कहते कहते, बेइज्जत हो मर जाते है | दोहा ध्यान लगा करके सुनो, ग्यारह शक्ति महान् । जो इनको धारण करे, अन्त लहे निर्वाण | आदर्श गुणों को ग्रहण करे, वह गुण माहात्म्या शक्ति है । गुणीजन की सेवा करना, शक्ति योग्य दूसरी जंचती है । स्मरण शक्ति तृतीया है, उपकार कभी न भुलाना है । कृतघ्न बन कर सर्वस्व हार. आत्म को नहीं रुलाना है | छोटे से छोटा चल होकर, यह दास्या शक्ति चौथी है । नही तजा मान जिस प्राणी ने, तो उसकी किस्मत सोती है शुभ सख्या शक्ति पंचम है, सबसे कुछ मैत्री भाव करो । है क्रान्ति तेज प्रभाव छठे, निज निर्बलता का पाप हरो ।। शुभ वात्सल्यता प्रेम भाव, सप्तम सबका सनमान करो । है आत्म समर्पण अष्टम शक्ति, धर्म पे सब कुर्बान करो || I
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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