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________________ २६८ रामायण Mannen www. annan दशवां आस्तिक धर्म कहा, निश्चय बिन कुछ नहीं बनता है। सम्यक् ज्ञान दर्श चरित्र, उत्तम फल को जनता है। दोहा विघ्न सभी पन्द्रह कहे, पड़े अगाड़ी आय । 'निराकरण इनका करे, सो शूरा जग मांय ।। प्रथम स्वास्थ्य ही ठीक नहीं, वह कहो तो क्या कर सकता है। फिर खानपान मे असंयम, वह कब दुःख से बच सकता है ।। सन्देह तीसरा विघ्न कहा, भ्रम जाल की यह बीमारी है। चौथे सच्चे गुरु का अभाव, जिनसे उनकी मति भारी है। और पंचम नियम कायदे पर, जिनको न चलना आता है। वह लीन दुःखो में रहे सदा, चाहे उनकी तरफ विधाता है ।। और छठे प्रसिद्धि करने में, सारांश नहीं कुछ रहता है। महाविघ्न कुतर्क सातवां है, अमृत को तज विष गहता है । कोई लक्ष्य बिना जो काम करे. उसका पुरुषार्थ निष्फल है। विना मूल के ब्याज असम्भव, और सम्भव होना मुश्किल है ।। मन शिथिल बने जिस प्राणी का, यह नवमा विन कहाता है। शुभ स्वर्ग मोक्ष के सुख यह, आत्म-मन शक्ति से पाता है। सन्तोष स्वल्प शुभ कार्य में, दशमा यह विघ्न महाभारी। धर्म ज्ञान और मोक्ष सभी का, सन्तोषी नहीं अधिकारी ॥ एकादश मे अशुभ कामना, विघ्न का कारण बनती है। द्वादश में कुशील परायण आत्म, कुम्भीपाक मे गलती है। जो पड़े कुसंगति में प्राणी तो, विघ्न तेरहवाँ आता है। सब शुभ धर्मों से वंचित होकर, अन्त समय पछताता है ।। और पर छिद्रान्वेषण में जिनकी, दृष्टि नित्य रहती है। यह विघ्न चौदहवा लाभ कीर्ति, सब पानी में बहती है।
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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