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________________ २४० रामायण The दोहा (कौसल्या) कहना तेरा ठीक है, क्या बतलाऊं लाल । हाल वही बतलायेगी, जिस फैलाया जाल ।। यह वर नहीं मांगा पिछले भव की, कैकयी मेरी दुश्मन है। क्योकि मुझको दुख देने में, ही मानो उसका खुश मन है ।। यह अच्छा था उसको वर मे, मेरी ही जान मांग लेती। पर राज खोस कर विरह, पुत्र का यह मुझको न दुख देती॥ हा ! कैसा जाल बिछाया जिसका, सुलझाना ही मुश्किल है। अफसोस जात औरत की होकर ऐसा जिसका संगदिल है ॥ देना किसने लेना किसने, फिर क्यो दखल हमारा है। तू दुख भोगे बन मे जाकर, सुत मुझको नहीं गंवारा है। दोहा (राम) मात बड़ों को चाहिये, होना अति गम्भीर । जैसे गहन समुद्र मे, नही उछलता नीर ॥ निज पर का यह ख्याल मात, उदारचित्त नहीं लाते हैं। यदि धर्म हेतु कोई पड़े काम तो, खेल जान पर जाते हैं । तू राम को, भरत और भरत राम को, समझ अपने दिल में माता। यह राज पाट सब रहे यहां, एक धर्म आत्मा संग जाता। जब मात कैकयी ने रण मे, पराक्रम अपना दिखलाया था। मांगो जो मरजी खुश होकर, राजा ने वचन सुनाया था। फिर मात कौन सा दोष कहो तो, पिता कैकयी माई का । जो राज ताज न धरा शीस, पर खाम ख्याल एक भाई का ॥ दोहा ( राम) दूर पिता का गम करे कर्तव्य अपना मात । अन्तिम शुभ फल सोच कर, धरो शीश पर हाथ ॥
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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