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सीता स्वयम्वर
२०६ www.rrrrrrrrrrmwar अब पुत्री कहना यही मेरा, खुश हो निज यति के गृह जावो । सुख सम्पत्तिवर सन्तान सदा, शोभन निज पुण्य से पावो ॥६॥ बचपन मे तूने अय बेटी ? सुख जन्म गृह मे पाये है।
आगे पति के गृह सर्व सुख, तेरे सन्मुख आये हैं ।।७।। पति सेवा का महत्व लाडली, सद्ग्रन्थो मे गाया है। इस बात को अब चरितार्थ करें, सब सार आज तू पाया है |
सव मन्त्र-तन्त्र टूणा जादू इनको, हृदय धरना न कभी । __ क्या भूत प्रेत डाकण शाकण, इनसे बेटी डरना न कभी हा
ये प्राण जाय तो जायं किन्तु, वेटी न धर्म जाने पावे ।
छल छिद्र पोय लीला बेटी, तुझको न कोई छलने आवे ॥१०॥ - निज सास-ससुर पति की सेवा, करना कर्त्तव्य तुम्हारा है।
सर्वज्ञ कथित करो धर्म शुक्ल, अन्तिम उपदेश हमारा है ॥११॥ एक आत्म और शरीर ये दो, रोग मुख्य संसार में हैं। कम खाना गम खाना औषधि, दोनों तेरे अधिकार में हैं ॥१२॥ बुतपरस्ती एक बला मिथ्या, वह भ्रम ना हृदय घर लेना। कभी देश धर्म आत्म समाज, कमजोर न इसको कर लेना ॥१३।। कृत कर्मो का भोग कष्ट, आपत्ति सहसा आजावे।। समता दृढ़ता से सब झेलो, रंचक ना दिल गिरने पावे ॥१४|| अन्याय के आगे सुकना न कभी, सब सष्टि चाहे उलट जावे । आत्म धर्म बचावो अन्तिम, चाहे सब कुछ लुट जावे ॥१५॥ क्या सीढ़ शीतला काली गौरी, भ्रम को दिल से ठुकराना। किसी देव दानव या गंधर्व का, शरणा न स्वप्नमात्र चाहना ॥१६॥ ज्ञान दर्श चारित्र से, तूने निज आत्म पहचाना । तो करो धर्म की नित सेवा, जो इस भव परभव सुख पाना ॥१७॥