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________________ १८६ रामायण जब कार्य बनने वाला हो तो कारण कोई बन जाता है। और यथा कर्म अनुसार वही, ताना बन कर तन जाता है। था अर्ध बर्बर देश विकट, 'अतरंग' नाम म्लेच्छ बड़ा। प्रान्त लूटता जनक भूप का, नित्य प्रति होने लगा झगड़ा। दोहा शक्ति देख 'अतरङ्ग' की, जनक गया घबराय । खबर अवध में मित्र को तुरन्त दई पहुंचाय ।। दई तुरन्त पहुंचाय, दूत ले पता अयोध्या आया। नमस्कार कही जनक भूप की, अपना शीश निमाया । जो था कारण आने का, दशरथ नृप को समझाया । बना सहायक आप मित्र के जल्दी तुम्हें बुलाया । दौड़ कष्ट जो सिर पर आवे, मित्र बिन कौन हटावे । दूत से दशरथ बोला, चलो अभी जाकरू खतम क्या है डाकुओ का टोला । दोहा कवच पहिन शस्त्र लिये, हो झटपट तय्यार । उसी समय कर जोड़ यों बोले पद्म कुमार ।। दोहा (रामचन्द्र जी) आप बिराजो यहीं पर, दो सुझको आदेश । जाकर आपके मित्र का, टालू सकल क्लेश ।। टाल सकल क्लेश, दुधारा ले झुक पडू जिधर को। निर्भय होकर देवो आज्ञा, प्यारे शेर बबर को । राम
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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