________________
११४
रामायण wwwrammarrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr
आदित्य नगर मे आते ही, रानी महलो पहुंचा और पवन जय नृप के दिल मे, बस वही रंजगी छाई है ॥ कर्म किसी के सगे नही, यह भंग रंग में करते है। इस कर्म जाल में फंसे हुवे, संसारी नित्य दुख भरते है।
दोहा बोली गोली से बुरी, तीखा श्रारा जान। पारा से बोली बुरी, कर देती घमसान ॥ बोल कुबोल न बिसरे, शूल समा सालन्त । रति कभी ना उपजे, प्रतिदिन आतेवन्त ।। ना कभी पास जाये रानी के, ना उसको देखना चाहता है । अंजना को दिन रात निरन्तर, यही रंजोगम खाता है ।। निश दिन पड़ी झुरे महलों मे, भेद ससु ने जब पाया। समझाया बहु विधि कुमर, पर ख्याल तलक भी नहीं लाया ।
दोहा प्रहसित सब कहने लगा, तुम हो चतुर सुजान । किन्तु उचित तुमको नहीं, अंजना का अपमान ।' निन्दा उसकी होती है, जो शूरवीर रण से भागे। दृढ धर्मी वह कहलाता है, जो बुर। काम मन से त्यागे। वह मित्र दुष्ट जो छल करता, ब्रह्मचारी दुष्ट शील त्यागे । बुरा काम वह दुनिया मे, जिसके करने से यश भागे । वह नार दुष्ट जो तजे पति, है दुष्ट पति त्यागे नारी। वह दुष्ट जो न त्यागे वैर, बदकार कार न तजता बदकारी । वह भी दुष्ट कहलाता है, जो निरपराधी को दुःख दे।। तथा वह भी होता दुष्ट मित्र को, संकट में ना जो सुख दे।