SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रावण दिग्विजय १०१ AAAAOn दोहा एक ने दूजे की लई, मान परस्पर बात । पुण्य खड़ा आ सामने, जैसे शुभ प्रभात ॥ रानी से विद्या लई, आशाली और भेद । विधि सहित साधन करी, मिट गया जो थी खेद ॥ चक्र सुदर्शन लिया हाथ, जो महा अनोखी शक्ति है। जिसने शस्त्रदिये उन्हो पर ही आ बनी आपत्ति है। बस प्रेम ही है बलवान अति, और फूट महा निर्बलता है। यह है प्रसिद्ध के विरोध जिन्हों में काम ना उनका चलता हैं।। रावण और विभीषण का सब प्रेम से भय काफूर हुवा। जहां खुशी हरस्यायत थी, वहीं से सुख अनिन्दं दूर हुवा ॥ रावण ने धावा बोलते ही, दुर्लघ नरेश को घेर लिया। और होनी ने अपना चक्र, सीधे से उल्टा फेर दिया ।। स्वाधीन कुबेर किया अपने, और उपरम्भा संग विदा किया। या यो कहिये कि तौक गले, परतन्त्रता का पहिन लिया । गांना नं० २८ तर्ज-(पाप का परिणाम प्राणी भोगते संसार मे) सच कहा क्षण-क्षण से ये किस्मत बदल' जाने को है, जीव बणजारे का यह टांडा भी लद जाने को है। आयु साज समाज किसी का एक रस रहता नहीं, चोट कर्मो की पड़े तब संबं बिखर जाने को है।२। बादल की छाया काया माया राज जर क्या महल है, सुरपति का राज सिंहासन भी डुल जाने को है ।। संपदा विपदा मनुष्य पर, कर्म वस पड़ती सदा, शुक्ल ज्ञानी ध्यानी जन, भव सिन्धु तर जाने को है ।४।
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy