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जैन रामायण द्वितीय सर्ग ।
आपके पुत्रने अपने शरीरसे दूषित किये हुए जलको छोड़कर मेरी पूजाको भंग कर दिया। इससे मुझको क्रोध आया और मैं उसे पकड़ लाया । परन्तु अब मैं यह मानता हूँ कि उस महात्माने यह कार्य अज्ञानमें किया होगा; क्योंकि आपका पुत्र जान बूझकर कभी भी इस भाँति अर्हतकी आशातना नहीं कर सकता है।"
इतना कह रावण सहस्रांशुको वहाँ लाया । लज्जासे सिर झुकाए हुए उसने मुनि, पिताको प्रणाम किया। रावणने कहा:-" हे सहस्रांशु ! आजसे तुम मेरे भाई हो ।
और ये मुनि जैसे तुम्हारे पिता हैं वैसे ही मेरे भी पिता हैं । अतः तुम जाकर अपने राज्यपर अधिकार चलाओ
और दूसरी पृथ्वी भी ग्रहण करो । हम तीन भाई हैं। राज्यलक्ष्मीके अंशको भोगनेवाले आजसे तुम भी हमारे चौथे भाई हुए।"
इतना कह, रावणने सहस्रांशुको छोड़ दिया । उसने कहा:-" मुझे इस राज्यकी और इस शरीरकी अब बिलकुल इच्छा नहीं है । मैं तो पिताने, संसारको नाश करनेवाले जिस व्रतको ग्रहण किया है-जिसका आश्रय लिया है-उसी व्रतको ग्रहण करूँगा-उसीका आश्रय लँगा । यह साधुओंका मार्ग निर्वाणको देने वाला है।"