________________
जैन रामायण द्वितीय सर्ग ।
असंख्य सेनासे भूमि और आकाशके मध्य भागको ऊँघता हुआ समुद्रकी भाँति उद्भ्रांत होकर अस्खलित गतिसे रावण चलने लगा । आगे चलते हुए विंध्यगिरि से उतरती हुई, चतुर कामिनीके समान रेवा नदी उसके दृष्टिपथमें आई। उस कल कल नादिनीके किनारे हँसश्रेणी ऐसी शोभित हो रही थी, मानो उस चतुर कामिनीने कटिमेखला - कंदोरा-धारण किया है । विशाल तटभूमि मानो उसके नितंब थे; उसकी अति भंगुर तरंगें लहराती हुई ऐसी दीख रही थीं, मानो उसकी केशराशी वायुसे हिल रही है । उसके अंदर बार बार उछलती हुई मछलियाँ ऐसी भासित हो रही थीं मानो वह कामिनी कटाक्ष पात कर रही है ।
I
५६
इस प्रकारकी शोभाधारिणी रेवा नदीके तटपर रावणने पड़ाव डाला । अपनी सेनासे घिरा हुआ रावण, यूथसे घिरे हुए हस्तिपति समान सुशोभित होता था ।
रेवानदीके पूरसे रावणकी देवपूजाका प्लावित होना । रेवा नदीमें स्नान कर, दो उज्वल वस्त्र पहिन, मनको स्थिर कर, रावण आसनपर बैठा और मणिमय चौकीपर रत्नमय अत बिंबका स्थापन कर रेवाके जलसे बिंबको स्नान करा; रेवा विकसित कमल बिंबपर चढ़ा; उसका पूजन करने लगा ।
रावण इस तरह पूजा में लीन था, उस समय समु