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जैन रामायण सातवाँ सर्ग ।
सच मुच ही मरना चाहते हो । पहिले भी झूठ बोलकर तुमने मेरे पिताको ठगा है; दशरथको मारनेकी प्रतिज्ञा कर उसको नहीं मारा है । अब जब राम यहाँ आया है तब, निर्लज्ज होकर भूचारीका डर बताते हो और मेरे पितासे रामकी रक्षा करना चाहते हो । इससे मैं समझता हूँ कि तुम रामके ही पक्षके हो । उसने तुमको अपने वशमें कर रक्खा है । अब तुम विचार करनेमें भी सम्मिलित होनेके योग्य नहीं रहे हो; क्योंकि आप्त मंत्रियोंके साथ जो विचार किया जाता है, वही शुभ परिणामकारी होता है।"
विभीषण बोला:-" मैं तो शत्रुके पक्षका नहीं हूँ; परन्तु जान पड़ता है कि, तू कुलमें शत्रु होकर उत्पन्न हुआ है । जन्मांधकी तरह तेरा पिता ऐश्वर्य और कामसे अंधा हो रहा है । रे मूर्ख ! दुधमुंहे बच्चे ! तू क्या समझता है ? हे रावण ! इस इन्द्रजीत पुत्रसे और अपने ऐसे आचरणसे थोड़े ही समयमें, निश्चयतया तेरा पतन होगा । अब मैं तेरे लिए व्यर्थ चिन्ता नहीं करूँगा।"
विभीषणके ऐसे वचन सुनकर, भाग्य-दूषित रावणको अधिक क्रोध हो आया । वह भयंकर तलवार खींचकर विभीषणको मारनेके लिए तैयार हुआ। भृकुटि चढ़ा, चहरेको भयंकर बना, हाथीकी तरह एक स्तंभ उखाड़, विभीषण भी रावणके साथ युद्ध करनेके लिए उद्यत हुआ।