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________________ जैन रामायण छठा सर्ग । कीको वापिस लाऊँगा । अतः अब चलिए । हम उसको खोजने का प्रयत्न करें । पहिले इस विराधको इसके पिताके पाताललंका के राज्यपर बिठाइए; क्योंकि युद्ध करते समय मैंने इसको वचन दिया है । " २७० 1 उनको प्रसन्न करनेके लिए विराधने उसी समय सीताकी शोधके लिए विद्याधर सुभटोंको भेजा । उनके वापिस लौट आने तक राम और लक्ष्मण, क्रोधाग्निसे विकगल हो, वार वार निःश्वास डालते हुए और क्रोधसे होठोंको चबाते हुए वहाँ वनमें ही रहे । विराधके भेजे हुए विद्याधर बहुत दूरतक फिरे; परन्तु उन्हें सीता कुछ भी समाचार नहीं मिले, इस लिए वे वापिस लौट आये और नीचामुख करके खड़े होगये । उनको नीचा मुहँ कर खडे देख, रामने कहाः " हे सुभटो। तुमने स्वामीका काम करनेमें यथा शक्ति कोशिशकी, परन्तु सीता के खोज नहीं मिले, तो इसमें तुम्हारा क्या दोष है ? जब दैव विपरीत होता है, तब तुम या कोई और क्या कर सकते हो ? " विराध बोला :-- " हे प्रभु ! खेद न कीजिए । खेद न करना ही लक्ष्मीका मूल है। आपकी सेवा करनेके लिए यह आपका सेवक तैयार है । अतः मुझे पाताल लंकार्मे प्रवेश करानेके लिए आज ही आप वहाँ चलिए । वहाँ रहनेसे सीताकी शोध भी सरलता के साथ हो सकेगी ।
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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