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सीताहरण।
दशांगपुर नगरको घेर लिया; जैसे कि चंदनके वृक्षको सर्प घेर लेते हैं। फिर उसने एक दूत भेजकर वजकरणसे कहलाया:-" हे कपटी ! अँगुलीमें अँगूठी पहिन कर, प्रणाम करनेमें तूने मुझको बहुत दिनों तक धोका दिया है । अत: अँगुली से अँगूठी निकाल कर मुझे प्रणाम कर; नहीं तो तू अपने कुटुंब सहित, शीघ्र ही यमराजके घर पहुँचाया जायगा।" __ वज्रकरणने उत्तर दिया:-" मेरे नियम है, कि मैं अर्हत और साधुके सिवा दूसरे किसीको प्रणाम नहीं करूँ। इसी लिए मैंने ऐसा किया है । मुझे पराक्रमका कुछ अभिमान नहीं है। परन्तु धर्मका अभिमान है । अतः नमस्कारके सिवा मेरा जो कुछ है, उसको आप यथारुचि ग्रहण करो
और मुझे एक धर्म द्वार दो, जिससे धर्मके लिए मैं यहाँसे कहीं अन्यत्र चला जाऊँ।"
धर्म एवास्तु मे धनं ।' (धर्म ही मेरा धन होओ।) वज्रकरणने ऐसा कहलाया ।मगर सिंहोदरने नहीं माना।
'धर्ममधर्म वा गणयंति न मानिनः।' ( मानी पुरुष धर्माधर्मको नहीं गिनते हैं।).
तभीसे सिंहोदर वज्रकरण सहित उस नगरको घेरकर पड़ा हुआ है । उसीके भयसे यह सारा प्रदेश उजड़ गया है।