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जैन रामायण चतुर्थ सर्ग । कैकेयीका स्वयंवर, और उसके साथ दशरथका ब्याह । मिथिल और इक्ष्वाकुवंशके राजा जनक और दशरथ, समान अवस्थावाले होनेसे, मित्र बन एक साथ पृथ्वीपर फिरने लगे । वे फिरते हुए उत्तरापथमें पहुँचे । वहाँ कौतुकमंगल नगरके राजा शुभमतिकी रानीके उदरसे जन्मी हुई द्रोणमेघकी बहिन बहत्तर कलावाली कैकेयी नामा कन्याका स्वयंवर था । वे भी स्वयंवरकी बात सुन, कौतुक मंगल नगरमें पहुँच, स्वयंवर मंडपमें गये। वहाँ हरिवाहन आदि राजा भी आये थे । उनके बीचमें वे दोनों भी जाकर, कमलके बीचमें जैसे हंस बैठते हैं, वैसे ही बैठ गये।"
रत्नालंकारसे विभूषित होकर कन्यारत्न कैकेयी, साक्षात लक्ष्मीकी भाँति; स्वयंवर मंडपमें आई। प्रतिहारीके हाथका सहारा लेकर प्रत्येक राजाको देखती हुई वह, बहुतसे राजाओंको उल्लंघनकर गई जैसे कि नक्षत्रोंको चंद्रलेखा उल्लंघन करजाती है। __ अनुक्रमसे वह, गंगा जैसे समुद्र के पास जाती है वैसे, दशरथ राजाके पास आई और नाविका जैसे नौका रोहीको उतारकर खड़ी होजाती है वेसे, वह वहाँ खड़ी होगई।
तत्पश्चात रोमांचित देहवाली कैकेयीने, बड़े हर्षके साथ अपनी भुजलताकी भाँति, दशरथके गलेमें वरमाला पहिनाई।